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सात्थी दरवाज्जे तै
टुसकदे '''हो'''ए बोल्या-
भाई '''भा'''ई ! सुण तो
के अन्दाजा है थारा
मान्नै फेर के
अपणी सात्थन खिड़की की
सुन्नी आँखाँ मैं झाँक कै
अँधेरे अँ'''धे'''रे मैं सुबकदी रोण लाग्गी,इतने मैं भो'''भो''' होग्गी
दरवाज्जे बी चुपचाप सै
खिड़कियाँ बी हैं उदास
पगडण्डियाँ तै उतरदी '''ह'''वा
पलटैगी रुख शायद ईब
धक्का '''ध'''क्का दे कै
चरमरान्दे होए
पहाड़ी कान्नी '''फे'''र तै
झूम्मैगी फेर तै खिड़कियाँ
घाट्टी मैं गुन्जैंगी स्वर लह'''रि'''याँ
'''( हरियाणवी में अनुवाद: डॉ.उषा लाल )
'''
</poem>