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| | वे तुम्हें मज़बूर करेंगे अपने समर्पण से। | | वे तुम्हें मज़बूर करेंगे अपने समर्पण से। |
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| − | {{KKGlobal}}
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| − | {{KKRachna
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| − | |रचनाकार=आर. चेतनक्रांति
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| − | |संग्रह=शोकनाच / आर. चेतनक्रांति
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| − | }}
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| − | छटपटाकर जगह बदलना
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| − | मैंने जब साèाुता से कहा–विदा
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| − | और घूमकर दुर्जनता की बा¡ह गही
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| − | वह कोई आम-सा दिन था
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| − | खूब सारी खूबियों की खूब सारी गलियों में
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| − | आवाजाही तेज थी
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| − | मिन्दर के चबूतरे पर
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| − | एक चिन्तित आदमी
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| − | सिर झुकाए, आ¡खें मू¡दे
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| − | भूखों को भोजन बा¡ट रहा था
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| − | वह इतना डर गया था
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| − | कि भूखे के हाथ का¡पते तो पत्तल मु¡ह पै दे मारता
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| − | बैठे-बैठे
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| − | एक लम्बा अरसा बीत गया था
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| − | मेरे गुस्से की नोकें एक-एक कर डूबती जा रही थीं
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| − | असहमत होने की इच्छा पिलपिली हो गई थी
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| − | दिल जरा-जरा-सी बात पर उछल पड़ता था
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| − | और खुदयकीनी पिघले गुड़ की तरह नसों में भर गई थी
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| − |
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| − | चलते-चलते भीतर कुछ कौंèाता था
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| − | और खो जाता था
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| − | वक्“त की पाबन्दी
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| − | बुजुगो± का सम्मान/सफेद चीजों का दबदबा
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| − | दफ्तर की ईमानदारी
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| − | एक अच्छे देश का नागरिक होने की जिम्मेदारी
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| − | और दोहरे-तिहरे अथो±वाली अर्थगभाZ कविताए¡
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| − | पिचकारी में पानी की तरह
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| − | हर जगह मेरे भीतर भर गई थीं
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| − | कोई जरा-सा कहीं दबाता
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| − | तो अच्छाई अच्छों की पीक की तरह
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| − | या प्राणप्यारी कुंठा के फोड़े की मवाद की तरह
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| − | फक् से फुदक पड़ती
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| − |
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| − | लोग मुझसे खुश थे
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| − | और अपना स्नेहभाजन बनाने को देखते ही टूट पड़ते
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| − | पालतुओं को पालने का शौक आम था
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| − | जंगलियों के लिए चििड़याघर थे
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| − | बस एक वीरप्पन था जो जंगल में बना हुआ था
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| − |
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| − | तभी बस शरारतन,
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| − | और थोड़ा ऊब की प्रेरणा से
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| − | और इसलिए भी डरकर, कि कहीं भगवान ही न हो जाऊ¡
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| − | मैंने
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| − | भलमनसाहत की दमघोंटू अगरबत्तियों से
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| − | गोश्त की भूरी झालरों में सजी बैठी मनुष्यता से
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| − | सफेद फालतू मांस से लदे अमीर बच्चे की आतंकवादी सुन्दरता से
| |
| − | छुटकारा पाना शुरू किया
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| − | पवित्राता के बौने दरवाजों की मर्यादा से निर्भय हो
| |
| − | मैं èाड़èाड़ाकर चला
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| − | जैसे सुन्दर कारों के बीच ट्रक जाता है
| |
| − | और कम्युनिटी सेंटर से बाहर हो गया, जहा¡
| |
| − | `बिगब्रांड´ कूल्हों और
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| − | अच्छाई के भरोसे दुभाZग्य से लापरवाह
| |
| − | चेहरों की सभा थी
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| − | और दरवाजे में वह मरघिल्ला चौकीदार
| |
| − | ईमान-की-हवा-में-तराश-दी-गई-मूर्ति-सा
| |
| − | अपने तबके के अहिंò बेईमानों की जामातलाशी कर रहा था
| |
| − | नोटिसबोर्ड पर लिखा था
| |
| − | कि देवताओं की पहरेदारी नहीं करता जो
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| − | वो हर कमजोर चोर होता है
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| − |
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| − | सड़क पर मैंने
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| − | बदबूदार खुली-आम हवा में
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| − | लम्बी सा¡स भरी और देखा
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| − | èार्मग्रन्थों और कानून की किताबों की पोशाकें पहने
| |
| − | अच्छाई के पहरेदारों का जुलूस चला जाता था
| |
| − |
| |
| − | बीचोंबीच अच्छाई थी
| |
| − | लम्बा बुकाZ पहने
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| − | ताकत को कमजोर बुरे लोगों की नजरों से बचाती
| |
| − | सिंहासन की ओर बढ़ी जाती
| |
| − | फट्-फट् फूटते गुब्बारों
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| − | और पटाखों के अच्छे, अलंघ्य शोर में सुरक्षित
| |
| − | स्वच्छ शामियानों से गुजरती
| |
| − | चा¡दनियों पर जमा-जमाकर पैर èारती
| |
| − | शक्ति के साथ
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| − | आमिन्त्रात करती
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| − |
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| − | लेकिन मैं बाफैसला
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| − | कोढ़िन कमजोरी के जर्जर आ¡चल में हटता हुआ पीछे
| |
| − | लड़ता मन में अच्छाई के ज्वार से
| |
| − | ताकत के भड़कते बुखार से
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| − | करता ही गया विदा उन्हें एक-एक कर
| |
| − | जो जाते थे
| |
| − | अच्छेपन की रौशन दुनिया में
| |
| − | अच्छाई के राजदण्ड से शासन करने।
| |
| − |
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| − | {{KKGlobal}}
| |
| − | {{KKRachna
| |
| − | |रचनाकार=आर. चेतनक्रांति
| |
| − | |संग्रह=शोकनाच / आर. चेतनक्रांति
| |
| − | }}
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| − |
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| − | श्रद्धावादी वक्त में
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| − |
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| − | श्रद्धा का सूर्य शिखर पर था
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| − | सबसे ठंडे मौसम में भी जो गर्माती रहती थी भीतर ही भीतर
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| − | चपल चापलूसी की चलायमान चा¡दई गुफा में दहकती थी जो सतत,
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| − | ठंडी अपराजेय वह आग
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| − | अपनी नीली लपटों से झुलसाती सृष्टि को
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| − |
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| − | कि पिघल बह गया शरीर
| |
| − | शरीर के डबरे में भर गया
| |
| − | बची बस एक आ¡ख तैरती
| |
| − | पूछती
| |
| − | बोल-बोलकर–
| |
| − | कि श्रद्धा से लबालब इस महागार में है कोई सीट खाली
| |
| − | बैठकर हिलने के लिए
| |
| − | दमकते वक्तृत्व की ताल पर
| |
| − | झमाझम व्यक्तित्व की चाल पर !
| |
| − |
| |
| − | कि हम अपने पहलों से थोड़े छोटे
| |
| − | हम चाहते हैं कि
| |
| − | पहले से छोटी हमारी आज की दुनिया में
| |
| − | हमें हमारी जगह मिले
| |
| − |
| |
| − | कि कल हम भी
| |
| − | आज के मंच से छोटे
| |
| − | एक मंच के मालिक होंगे
| |
| − | श्रद्धा उपजाने की मशीन से
| |
| − | कातेंगे वहा¡ बैठ अपनी नाप से छोटे कपड़े
| |
| − | अपने बादवालों के लिए
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| − |
| |
| − | जितनी मेहनत हमने की
| |
| − | उससे कम मेहनत करने की सुविèाा देंगे
| |
| − | अपने अनुजों को
| |
| − | सिखाए¡गे उन्हें इससे भी घोर अनुकरण
| |
| − | और मनीषा जिसके जेबी संस्करण
| |
| − | श्रद्धेय ने हमें दिए
| |
| − | उन्हें हम आनेवाले उन जिज्ञासुओं की
| |
| − | उ¡गलियों पर बटन बनाकर èार देंगे
| |
| − | कि वे जब चाहें
| |
| − | पा लें अपने पापों के तर्क
| |
| − |
| |
| − | सो, हे मानवी मेèाा के साकार पुरुष
| |
| − | अपने असंख्य खम्भों वाले इस छोटे से दालान में
| |
| − | हमें बताइए, कि अपनी इन योजनाओं के साथ हम कहा¡ बैठें !
| |
| − |
| |
| − | हमें अभिनय करना पड़ता है परवाह का
| |
| − | बीच बाजार, जब हम पकड़े जाते हैं,
| |
| − | अपने अगलों को हम देंगे खूब सारा अ¡èोरा
| |
| − | कि सुस्थ, बाइत्मीनान बैठ वे सोच सकें
| |
| − | सबसे बकवास किसी मसले पर,
| |
| − | मसलन मसला मालिक के मूड का
| |
| − | फसलन फसला फालिक के फूड का
| |
| − | हमसे भी ज्यादा सुलभ तुक उन्हें मिले
| |
| − | हर जंग वे जीतें और अंग भी न हिले
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| − |
| |
| − | आपने हमें दी सूक्तिया¡
| |
| − | हम उन्हें दें कूक्तिया¡।
| |
| − |
| |
| − |
| |
| − | {{KKGlobal}}
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| − | {{KKRachna
| |
| − | |रचनाकार=आर. चेतनक्रांति
| |
| − | |संग्रह=शोकनाच / आर. चेतनक्रांति
| |
| − | }}
| |
| − |
| |
| − | आगे के बारे में एक ईष्र्याप्रसूत कविता
| |
| − |
| |
| − | वे तो बढ़े ही चले जा रहे थे
| |
| − | आगे, और आगे
| |
| − |
| |
| − | और आगे के बारे में उनकी राय तय हो चुकी थी
| |
| − | कि जहा¡ पीछेवालों की इच्छाए¡ जाकर पसर जाए¡
| |
| − | कि जहा¡ आप दयनीयता पर क्रोèा करने को स्वतन्त्रा हों
| |
| − | कि जहा¡ जमाने-भर की ईष्र्याए¡
| |
| − | आपका रास्ता बुहारें
| |
| − | उस जगह को आगे कहते हैं
| |
| − |
| |
| − | वे आगे वहा¡
| |
| − | दुनिया-भर की ईष्र्या पर मुटिया रहे थे
| |
| − | और बीच-बीच में फोन करके पूछते थे,
| |
| − | हैलो, अरे तुम कहा¡ ठहरे हुए हो ?
| |
| − |
| |
| − | रास्ता उन्हें अèयात्म की तरह लगता था
| |
| − | जैसे किसी को धर्म का डर लग जाता है
| |
| − | कि लीक छोड़कर
| |
| − | चाय की दूकान तक भी जाते
| |
| − | तो `चलू¡-चलू¡´ से छका मारते
| |
| − |
| |
| − | एक किसी भी दिन
| |
| − | वे उतरते नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर
| |
| − | और शहर के सबसे स्मार्ट रिक्शावाले को
| |
| − | रास्ता बताते हुए शहर पार करने लगते
| |
| − | कि जैसे बरसों से इसे जानते हों
| |
| − |
| |
| − | वे अपने भीतर और शहर में
| |
| − | एक खाली कुआ¡ तलाश करते
| |
| − | जो उन्हें मिल जाता
| |
| − |
| |
| − | वे एक मकसद का आविष्कार करते
| |
| − | जो पिछले एक करोड़ साल से इस दुनिया में नहीं था
| |
| − | वे किराए के पहले कमरे की कु¡आरी दीवार की तरह
| |
| − | मु¡ह करके खड़े होते, और कहते–
| |
| − | कि जो जा चुके हैं आगे, उन्हें मेरा सलाम भेजो
| |
| − | कि मैं आ गया हू¡
| |
| − | कि यह लकीर जिसे तुम रास्ता कहती हो
| |
| − | अब बढ़ती ही जाएगी, बढ़ती ही जाएगी मेरे पैरों के लिए
| |
| − | कि मैं रुकने के लिए नहीं हू¡
| |
| − | चलो, नीविबन्èा खोलो, झुको और खिड़की बन जाओ
| |
| − |
| |
| − | और ऊ¡चाइयों पर खुदाई शुरू कर देते
| |
| − | कि कु¡ओं को पाटना तो पहला काम था
| |
| − | कुए¡ जो लालसा के थे
| |
| − |
| |
| − | यू¡ एक करोड़ साल बाद
| |
| − | राजèाानी दिल्ली में एक और सृष्टि का निर्माण शुरू होता
| |
| − |
| |
| − | एक बौना आदमी
| |
| − | आसमान के इस कोने से उस कोने तक तार बा¡èा देता
| |
| − | कि यहा¡ मेरे कपड़े सूखेंगे
| |
| − | भीड़ के मस्तक को खोखला कर एक अहाता निकाल देता
| |
| − | कि यहा¡ मेरा स्कूटर, मेरी कार खड़े होंगे
| |
| − | दुनिया के सारे आदमियों को
| |
| − | एक-के-ऊपर-एक चिपकाकर अन्तरिक्ष तक पहु¡चा देता
| |
| − | कि इस सीढ़ी से कभी-कभी मैं इन्द्रलोक
| |
| − | जाया करू¡गा–जस्ट फॉर ए चेंज
| |
| − |
| |
| − | और इन्द्रलोक पहु¡चकर अकसर वह फोन करता,
| |
| − | पूछता, हैलो, अरे तुम कहा¡ अटक गए ?
| |
| − |
| |
| − | इस तरह इन छवियों से छन-छनकर
| |
| − | जो आगे आता था
| |
| − | वह लगभग-लगभग दिव्य था
| |
| − | लगभग-लगभग एक तिलिस्म
| |
| − | कि हर गली के हर मोड़ से उसके लिए रास्ता जाता था
| |
| − | लेकिन सबके लिए नहीं
| |
| − | कि वह दुकानों-दुकानों बिकता था पुिड़या में
| |
| − | पर सबके लिए नहीं
| |
| − |
| |
| − | कि वह कभी-कभी सन्तई हा¡क लगाता था
| |
| − | खड़ा हो बीच बजार
| |
| − | लेकिन वह भी सबके लिए नहीं
| |
| − |
| |
| − | रहस्य यही था
| |
| − | कि वह सबका था
| |
| − | लेकिन सबके लिए नहीं था
| |
| − | ऐसे उस आगे की आ¡त में उतरे जाते थे कुछ–
| |
| − | अंग्रेजी दवाई-से–तेज़ और रंगीन
| |
| − | और कुछ अटक गए थे, ठीक मुहाने पर आकर कब्ज की तरह
| |
| − | और सुनते थे कभी-कभी
| |
| − | पब्लिक बूथ पर हवा में लटके
| |
| − | चोंगे से रिसती हुई एक ह¡सती-सी आवाज़
| |
| − | कि, हैलो··, अरे तुम कहा¡ फ¡से हो जानी !
| |
| − |
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| − |
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| − |
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| |
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| − | }}
| |
| − |
| |
| − | खुशी के अन्तहीन सागर में
| |
| − |
| |
| − | खुशी खत्म ही नहीं होती
| |
| − |
| |
| − | कुछ ऐसी मस्ती छाई है
| |
| − | कि रात-भर नींद नहीं आई है
| |
| − | फिर भी सुबह चकाचक है
| |
| − |
| |
| − | िहृतिक रौशन प्यारा-प्यारा
| |
| − | मुन्नी की आ¡खों का तारा
| |
| − |
| |
| − | सेवानिवृत्त दद्दू कर्नल जगदीश
| |
| − | बाल्कनी में जा¯गग करते-करते हुलसे–
| |
| − | नायकहीन अ¡èोरे वक्तों का उजियारा
| |
| − |
| |
| − | आमलेट के मोटे पर्दे के पीछे से
| |
| − | बैंक मनीजर कुक्कू ने मुस्कान उठाई–
| |
| − | वह देवता है खुशियों का
| |
| − | सुन्दर सुबहों को जगानेवाला परीजाद
| |
| − |
| |
| − | देखो, मछलिया¡ उसकी देह की क्या कहती हैं–
| |
| − | लिपििस्टक बहू
| |
| − | बाथरूम के दरवाजे पर विजयपताका-सी लहराई
| |
| − |
| |
| − | पर्दे के इस कोने से उस कोने तक दरिया-सी बहती हैं–
| |
| − | मम्मू बोलीं
| |
| − |
| |
| − | साठ साल की उजले दा¡तोंवाली मम्मू
| |
| − | नए दौर का नया ककहरा सीख रही हैं–
| |
| − | क ख ग घ च छ ट ठ, मेरी घटती उम्र का घटना
| |
| − | उसके ही शुभ-शिशु-आनन के दरशन का परताप
| |
| − | मुझे यह मेरे खेल-खिलौने दिन वापस देता है
| |
| − |
| |
| − | इसके वह कई करोड़ लेता है–
| |
| − | ज्ञानी मुन्ना बाबा ने खुशियों-भरी सभा में अपनी पोथी खोली
| |
| − |
| |
| − | `स्टारडस्ट के पण्डित´, चुप कर–दद्दू कड़के
| |
| − | कीमत का मत जिक्र चला, ओ निèाZन माथे
| |
| − | कीमत का जिक्र अशुभ होता है
| |
| − | तुझसे कभी किसी ने
| |
| − | किसी चीज की कीमत पूछी, बोल
| |
| − | कीमत तो है शगुन
| |
| − | असल चीज है खुशी
| |
| − |
| |
| − | खुशी जो खत्म न हो–
| |
| − | डाक्यूमेंट्री फिल्मों के निर्माता
| |
| − | निशाचर
| |
| − | पापा
| |
| − | घर के मुखिया
| |
| − | खुशियों के कालीन पै पग èारते ही चहके
| |
| − | खुशी ही रचे उन्हें
| |
| − | जो करते लीड जमाने को
| |
| − | पिछले हफ्ते नहीं सुने थे वचन
| |
| − | गुरु खुशदीप कमल सिंहानीजी के ?
| |
| − | खुशी ने ही तो उसे रचा है
| |
| − | उस मुस्काते, उस उम्र घटानेवाले जादूगर नायक को
| |
| − |
| |
| − | और हमें भी तो
| |
| − | रचा खुशी ने ही–
| |
| − | बेडरूम से पर्दा फाड़
| |
| − | भैया बड़े कृष्ण भक्त
| |
| − | पोप्पर्टी डीलर, बोले–
| |
| − | खुशी की गागर èारो सहेज
| |
| − | शेष कृष्णा पर छोड़ो
| |
| − | आ¡खें मू¡दो–अन्तर के संगीत में नाचो
| |
| − | खुशी के अन्तहीन सागर के तल पर
| |
| − | हृदय से झरते जल पर डोलो
| |
| − | (èाूम èााम èााम èाूम èामक èामक èान्न)
| |
| − | कृष्ण हरे बोलो।
| |
| − |
| |
| − |
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| − |
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| − | {{KKGlobal}}
| |
| − | {{KKRachna
| |
| − | |रचनाकार=आर. चेतनक्रांति
| |
| − | |संग्रह=शोकनाच / आर. चेतनक्रांति
| |
| − | }}
| |
| − |
| |
| − | खुदयव़+ीनी
| |
| − |
| |
| − | खुदयव़+ीनी भी एक चीज़ थी
| |
| − | जैसे कोट और कमीज़
| |
| − | बदन पर डालकर निकलते तो खुद-ब-खुद बावि़+यों से अलग हो जाते
| |
| − | पैसों की तरह हम उसे कमाया करते
| |
| − | सहेजकर रखते
| |
| − | सन्तानों के लिए
| |
| − |
| |
| − | वह मोटे तले का जूता थी
| |
| − | पुरानी घोड़े की नाल पर कसा हुआ
| |
| − | सब आवाज़ों के ऊपर जो ठहाक्-ठहाक् बजता
| |
| − | मिमियाती हुई जातियों और पीढ़ियों
| |
| − | और देश के सुदूर कोनों से ढेर-ढेर संशय लिये आती भीड़ के मु¡ह पर पड़ता
| |
| − |
| |
| − | दुनिया के मु¡ह पर दरवाजा बन्द कर
| |
| − | हम उसका रियाज़ करते
| |
| − | शब्द बदलते, वाक्यों के तवाज़Äन में हेर-फेर करते
| |
| − | सा¡स में फू¡कार भरते
| |
| − | पिंडलियों में इस्पात ढालते
| |
| − | विशेषज्ञों से सलाह लेते
| |
| − | और तब युद्ध पर निकलते
| |
| − | और जीतकर लौटते
| |
| − |
| |
| − | हारने की दशा में भी हम न हारते
| |
| − | हम सोचते कि हम जीत रहे हैं
| |
| − | और हम जीत जाते
| |
| − |
| |
| − | खुदयव़+ीनी हमारी
| |
| − | पोले ढोल के ऊपर चमड़े का शानदार खोल थी
| |
| − | जब भी खतरा दिखाई देता,
| |
| − | हम उसे बेतहाशा पीट डालते
| |
| − | और सारे समीकरण बदल जाते।
| |
| − |
| |
| − |
| |
| − |
| |
| − |
| |
| − | {{KKGlobal}}
| |
| − | {{KKRachna
| |
| − | |रचनाकार=आर. चेतनक्रांति
| |
| − | |संग्रह=शोकनाच / आर. चेतनक्रांति
| |
| − | }}
| |
| − | मालिक का छत्ता
| |
| − |
| |
| − | आसमान काला पड़ रहा था
| |
| − | èारती नीली
| |
| − | जब हमारे मालिक ने
| |
| − | अपने मासिक दौरे पर पहला व़+दम दफ्“तर में रखा
| |
| − | दफ्“तर में बहुत सारी कोटरें थीं
| |
| − | शुरू में आदमी भरती किए गए थे
| |
| − |
| |
| − | मालिक गुजरा तो
| |
| − | हर कोटर कसमसायी, थोड़ी-सी तड़की
| |
| − | जैसे आकाश में बिजली कौंèाी हो
| |
| − | और उनकी उपस्थिति को महसूस किया गया
| |
| − |
| |
| − | दूर से देखो तो समाज मèाुमिक्खयों के छत्ते की तरह दिखाई देता है
| |
| − | बन्द और ठोस
| |
| − | लेकिन उसमें रास्ते होते हैं, बहुत सारे छेद
| |
| − |
| |
| − | मालिक उन सबसे गुजरकर यहा¡ तक पहु¡चा है
| |
| − | उसके बदन से शहद टपक रहा है
| |
| − | सब उसके पीछे हैं
| |
| − | बस, एक चटखारा
| |
| − |
| |
| − | हम समर्थ थे
| |
| − | और सुलझे हुए
| |
| − | और नए फैशन के कपड़ों से सजे
| |
| − | लेकिन उस क्षण हमारे ऊपर
| |
| − | हमारा वश नहीं रह गया था
| |
| − | हम किसी भी पल सो सकते थे
| |
| − | हम किसी भी पल रो सकते थे
| |
| − |
| |
| − | वे कुछ कह देते तो
| |
| − | हम तालिया¡ बजाकर स्वागत करते
| |
| − | लेकिन वे कुछ नहीं बोले
| |
| − | और चले गए।
| |
| − |
| |
| − |
| |
| − |
| |
| − |
| |
| − | {{KKGlobal}}
| |
| − | {{KKRachna
| |
| − | |रचनाकार=आर. चेतनक्रांति
| |
| − | |संग्रह=शोकनाच / आर. चेतनक्रांति
| |
| − | }}
| |
| − |
| |
| − | बैंक में हम थे, हवा न थी
| |
| − |
| |
| − | बैंक में हम थे, हवा न थी
| |
| − | हम सा¡सों की बची बासी हवा में सा¡सें लेकर
| |
| − | अर्थव्यवस्था में जिन्दा थे
| |
| − |
| |
| − | जिन्दा थे इस ख्याल से भी कि हम बैंक में हैं
| |
| − | और इससे भी कि देखो तो कितने होंगे जो बैंक में नहीं होते
| |
| − | हम विकासलीला की हत्शीला भूमि के बैंक में थे
| |
| − |
| |
| − | बैंक में हवा न थी, पैसे थे
| |
| − | जैसे जंगल में हवा दिखती नहीं
| |
| − | पर जिन्दा रखती है
| |
| − | ऐसे ही बैंक में पैसे
| |
| − | दिखते नहीं, पर जिन्दा रखते हैं
| |
| − |
| |
| − | लेकिन हवा अपने जीवितों को गुस्सा नहीं देती
| |
| − | पैसे अपने जीवितों को गुस्सा देते हैं
| |
| − |
| |
| − | बैंक में हवा न थी, गुस्सा था
| |
| − | जिनकी पासबुक में पैसे ज्यादा थे
| |
| − | उनका गुस्सा था
| |
| − | जिनकी पासबुक में कम थे
| |
| − | उनके ऊपर गुस्सा था
| |
| − | उनके ऊपर बैंक के कम्प्यूटरों का भी गुस्सा था
| |
| − | वे ढों की आवाज के साथ चिड़चिड़ाकर ह¡सते थे
| |
| − |
| |
| − | बैंक में हवा न थी, कम्प्यूटर थे
| |
| − | और हर कम्प्यूटर के साथ
| |
| − | कॉर्बन कॉपी की तरह नत्थी एक क्लर्क था
| |
| − | जिनकी पासबुक भारी थी
| |
| − | उन्हें देख वह भी रिरियाता था
| |
| − | जिनकी हल्की थी, उन्हें गरियाता था
| |
| − |
| |
| − | बैंक में हवा न थी, समाज था
| |
| − | समाज अपनी आदतों में कतई सहनशील न था
| |
| − | वह हिकारत से देखता था
| |
| − | और देख लिये जाने पर पू¡छ दबाकर कु¡कुआता था
| |
| − | वह घर से योजना बनाकर अगर चलता था
| |
| − | तो ही विनम्र हो पाता था
| |
| − | अन्यथा इनसानियत के कैसे भी कुदृश्य पर
| |
| − | सुतून-सा खड़ा रह जाता था
| |
| − |
| |
| − | बैंक में हवा न थी, सुतून थे
| |
| − | कदम-कदम पर तने खड़े
| |
| − | कि जैसे गिलट के सिक्के चिन दिए गए हों
| |
| − |
| |
| − | एक खिड़की थी
| |
| − | जिसके पीछे हवा जोर मार रही थी
| |
| − | और आगे दो खातेदार हिजड़े
| |
| − | खड़े हवा के लिए लहरा-बल खा रहे थे
| |
| − |
| |
| − | बैंक में हवा न थी
| |
| − | पौरुष से अकड़े सैकड़ों सुतून
| |
| − | और नपुंसकता के खाते पर पानी-पानी होते
| |
| − | दो हिजड़े थे,
| |
| − | जब मैं पहु¡चा,
| |
| − | वे भी जा रहे थे।
| |
| − |
| |
| − |
| |
| − |
| |
| − | {{KKGlobal}}
| |
| − | {{KKRachna
| |
| − | |रचनाकार=आर. चेतनक्रांति
| |
| − | |संग्रह=शोकनाच / आर. चेतनक्रांति
| |
| − | }}
| |
| − | भगवान का भक्त
| |
| − |
| |
| − | कृतज्ञ होकर मैंने ईश्वर से डरने का फैसला किया
| |
| − |
| |
| − | जब बिल्ली अ¡गड़ाई लेकर चलती
| |
| − | जब तीसरी आ¡ख का कैमरा िक्लक करता
| |
| − | और अनिष्ट का देवता क्लोजअप में मुस्कुराता
| |
| − |
| |
| − | जब दूर कहीं से कोई डरावनी आवाजें भेजता
| |
| − | जब किताबों में लिखे काले मु¡हवाले शब्द
| |
| − | छिपकलियों और तिलचट्टों की तरह पीले पन्नों से निकलते
| |
| − | और सरसराकर नीली दीवारों पर फैल जाते
| |
| − | मैं ईश्वर का आभार व्यक्त करता कि मुझे कुछ नहीं हुआ
| |
| − |
| |
| − | संसार वीरता में मस्त था
| |
| − | कण-कण में युद्ध था
| |
| − | पाए जा चुके मकसद और हासिल किए जा चुके किले थे
| |
| − | जो कहते थे कि रुको मत
| |
| − |
| |
| − | मैं कृतज्ञता का मोटा कम्बल ओढ़े
| |
| − | कदम-कदम खड़े
| |
| − | भिखारियों को चेतावनी की तरह सुनता
| |
| − | हर मिन्दर को शीश नवाता
| |
| − | प्रणाम करता हर सफेद चीज को
| |
| − | कहता हुआ कि कृपा है, आपकी कृपा है
| |
| − | गर्दन झुकाए चला जाता
| |
| − | सबसे घातक भीड़ के भी बीच से
| |
| − | मुस्कुराता हुआ
| |
| − | बुदबुदाता हुआ–दूर हटो दूर हटो दूर हटो कीड़ों !
| |
| − |
| |
| − |
| |
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| − | {{KKRachna
| |
| − | |रचनाकार=आर. चेतनक्रांति
| |
| − | |संग्रह=शोकनाच / आर. चेतनक्रांति
| |
| − | }}
| |
| − | प्रयाण
| |
| − |
| |
| − | चलो प्रिये, दिखावा करें
| |
| − | कि दुश्मन
| |
| − | अपने दिल की आग में जल मरें
| |
| − |
| |
| − | सारे कपड़े पहन लो
| |
| − | सारी पैंटें सारी शटे±, सारी जूतिया¡ सारी टोपिया¡
| |
| − | घर का सब सामान बीनकर
| |
| − | सिर पर èार लो
| |
| − | झाड़ो घर का कोना-कोना
| |
| − | इक-इक कण सोने का
| |
| − | चा¡दी का झोली में भर लो
| |
| − | नयी झाडू भी जिसमें चीते की पू¡छ के बाल लगे हैं
| |
| − |
| |
| − | सबसे ऊपर रखो हािर्दक शुभकामनाए¡
| |
| − | दिल की शक्ल में कटी लाल कागज की झंडी
| |
| − |
| |
| − | रुको, जरा फोन कर लेते हैं
| |
| − |
| |
| − | सुनिए, हम लोग यहा¡ अष्टभुजा चौराहे पर खड़े
| |
| − | सेल से फोन कर रहे हैं
| |
| − | हम आपके यहा¡ दिखावा करने आ रहे थे
| |
| − | आपकी तैयारी हो गई है न
| |
| − |
| |
| − | जी हा¡, जी हा¡ बस ऐसे ही सोचा
| |
| − | कि चलो पहले सावèाान कर दें !
| |
| − |
| |
| − |
| |
| − |
| |
| − |
| |
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| − | |रचनाकार=आर. चेतनक्रांति
| |
| − | |संग्रह=शोकनाच / आर. चेतनक्रांति
| |
| − | }}
| |
| − | एक बार फिर करुणामय
| |
| − |
| |
| − |
| |
| − | मैंने सारा खतरा अपनी तरफ रखा
| |
| − | और शहर के बीचोबीच खड़े होकर पूछा
| |
| − | कि अगर आप चाहें तो बता दें कि सच क्या है
| |
| − |
| |
| − | लोग मेरे भोलेपन पर चकित हुए
| |
| − | और ह¡से
| |
| − | और कुर्सियों पर पीठ टिकाकर शान्त हो गए
| |
| − |
| |
| − | क्योंकि मेरे पास सच को जानने का कोई तरीका नहीं था
| |
| − | और क्योंकि उन्हें झूठ से अनेक फायदे थे
| |
| − |
| |
| − | इसलिए
| |
| − | उन्होंने बिल्कुल सच की तरह सहज होकर कहा
| |
| − | कि सच तो यही है जो तुम देख रहे हो
| |
| − |
| |
| − | मैंने सुना
| |
| − | और अपनी हताशा को
| |
| − | जाहिर न होने देने के लिए देर तक मशक्कत की
| |
| − |
| |
| − | कि अगर वे सुकून में चले गए थे
| |
| − | तो उन्हें अपने सन्देह का सुराग देना हिंसा थी
| |
| − | वह उन्हें उत्तेजना और पीड़ा में ले जाती
| |
| − |
| |
| − | मैंने खतरे को सहेजकर भीतर रखा
| |
| − | प्रलय के अगम कूप को
| |
| − | अपने गोश्त से ढा¡पा
| |
| − |
| |
| − | और ईश्वर से कहा कि चिन्ता मत करो
| |
| − |
| |
| − | और सबकी तरफ देखकर मुस्कुराया एक अहमक ह¡सी
| |
| − | कि वे आश्वस्त रहें
| |
| − | कि डरें नहीं कि उनका झूठ बेपर्दा था
| |
| − | कि कोई उन्हें आकर सजा देगा
| |
| − | उनके झूठ का रास्ता रोकेगा
| |
| − |
| |
| − | और ईश्वर से कहा कान में
| |
| − | कि चलो अभी स्थगित करते हैं
| |
| − | कि उन्हें अपनी चालाकी
| |
| − | और चतुराई
| |
| − | और कानाफूसी
| |
| − | और वीरता की तरह बरतनेवाली
| |
| − | कायरता से और सफेदी
| |
| − | और सफाई से
| |
| − | बाहर आते हुए अपनी सीढ़िया¡ उतरने दो
| |
| − | कुछ वक्त उन्हें और दो।
| |
| − |
| |
| − |
| |
| − |
| |
| − | {{KKGlobal}}
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| |
| − | |रचनाकार=आर. चेतनक्रांति
| |
| − | |संग्रह=शोकनाच / आर. चेतनक्रांति
| |
| − | }}
| |
| − |
| |
| − | दस हज़ार की नौकरी और
| |
| − | दाम्पत्य जीवन की एक सफल रात
| |
| − |
| |
| − | अक्सर यह गुम रहती है
| |
| − | पीली, गुलाबी, हरी, नीली या जाने किस रंग की एक लट की तरह
| |
| − | उस èाूसर सफेद में
| |
| − | जो सात रंगों के मन्थन में सबसे अन्त में निकलता हैण्ण्ण्
| |
| − | और
| |
| − | सबसे अन्त तक रहता हैण्ण्ण्
| |
| − |
| |
| − | आप अगर ढू¡ढ़ने निकलें तो इसे नहीं पा सकते
| |
| − |
| |
| − | लेकिन कभी-कभी अकस्मात् यह घटित हो जाती है
| |
| − | जाहिर है पूर्वजन्मों के सद्कमो± और वर्तमान में अर्जित
| |
| − | वस्तुगत आत्मविश्वास की इसमें बड़ी भूमिका होती है
| |
| − |
| |
| − | यह कहानी ऐसी ही एक गुमशुदा रात की है
| |
| − | जो शाम छ: बजे शुरू हुई, और कुम्हार के चक्के की तरह सुबह छ: बजे
| |
| − | तक èाुआ¡èाार चली
| |
| − |
| |
| − | बेशक जो आपके सामने आए¡गे, वे चित्रा उस रफ्“तार का पता नहीं देते
| |
| − | जो अक्सर ठोस और èाारदार चित्राों के पीछे अकेली सिर èाुनती रहती है
| |
| − | 1
| |
| − | आप देख रहे हैं
| |
| − | यह एक पत्नी है
| |
| − | सवेरेवाली गाड़ी जिससे छूट गई थी
| |
| − | पूरा दिन इसने अभारतीय काम-कल्पनाओं
| |
| − | और बच्चे के सहारे काटा
| |
| − |
| |
| − | अब सूरज डूब रहा है
| |
| − | सुबह जिनको जाते देखा था
| |
| − | अब वे आते दिख रहे हैं
| |
| − | खुशी-खुशी èाक्का-मुक्की करते हुए
| |
| − | वे अपनी जमीनों और गलियों में उतर रहे हैं
| |
| − |
| |
| − | देखिए पति भी आ रहा है
| |
| − | उसकी कुहनी खंजर है और पीठ ढाल
| |
| − | लेकिन यह तो रोज ही होता है
| |
| − | आज उसके हाथ में एक तरबूज भी है
| |
| − | गर्मियों का फल जो शीतलता देता है
| |
| − | लेकिन सिर्फ यही नहीं
| |
| − | नि:सन्देह आज उसके पास कुछ और भी है
| |
| − | देखिए
| |
| − | पत्नी के प्रेमियों से
| |
| − | आज वह जरा भी घबराया नहीं
| |
| − | सारे उसकी बगल से बिना सिर उठाए गुजर गए
| |
| − | वह भी, वह भीण्ण्ण्और वह भी जिसके बिना मुन्ना एक पल नहीं ठहरता
| |
| − |
| |
| − | 2
| |
| − | रात बरसों की सोई भावनाओं की तरह जाग रही है
| |
| − | और नींद में छेड़े सा¡प की तरह
| |
| − | कुंडली कस रही हैण्ण्ण्
| |
| − | पत्नी जैसा कि आप देख ही चुके हैं
| |
| − | अभी खू¡टा तुड़ाने पर आमादा थी,
| |
| − | èाीरे-èाीरे लौट रही हैण्ण्ण्
| |
| − | उसके भीतर उस मुगेZ के पंख एक-एक उतरकर
| |
| − | तह जमा रहे हैं जो रोज पिछले रोज से एक फुट ज़्यादा उड़ता है
| |
| − | और हवा में मारा जाता है,
| |
| − | अगले दिन फिर उड़ता है और फिर मारा जाता है,
| |
| − |
| |
| − | संकुचित, सलज्ज और बिद्धण्ण्ण्मादा `बाकी कल´ के लिए सुरक्षित हो
| |
| − | अभी अपने प्रकृति-प्रदत्त नर के लिए तैयार हो रही हैण्ण्ण्
| |
| − |
| |
| − | देखो
| |
| − | पति आज टहल नहीं रहा
| |
| − | बैठा घूरता है
| |
| − | उसकी नंगी जा¡घों पर तरबूज और हाथ में चाकू है
| |
| − | आ¡खों में आमन्त्राण
| |
| − | जिसे आज कोई नहीं ठुकरा सकता
| |
| − | इस आमन्त्राण के बारे में सुनते हैं कि
| |
| − | जिनके पूर्वजों ने एक हजार साल सतत् त्रााटक किया होण्ण्ण्
| |
| − | यह उन्हीं की आ¡खों में होता है
| |
| − |
| |
| − | पत्नी आखिरी सीढ़ी पर आ चुकी है
| |
| − | बैठती है
| |
| − | वह कंघी से अपने पाप बुहार रही है,
| |
| − | जिनको उसने
| |
| − | दिन-भर सोच-सोचकर अर्जित किया था
| |
| − | पूणिZमा का चा¡द ठीक ऊपर चक्के की तरह घूम रहा है
| |
| − | घू¡ण्ण्ण्घू¡ण्ण्ण्घू¡ण्ण्ण्
| |
| − | पति को छुटपन से चा¡द का शौक रहा है
| |
| − | घूमता चा¡द उसकी आदिम इच्छाओं को जगाया करता है
| |
| − | 3
| |
| − | स्त्राी के भीतर चा¡दनी का ज्वार उठ रहा है
| |
| − | स्वच्छ, èावल, शुभ्र पातिव्रत का कीटाणुनाशक फेन
| |
| − | उसकी देह के किनारों से
| |
| − | फकफकाकर उड़ रहा है, जैसे हांडी से दाल
| |
| − | पुरुष चीखता है और चा¡द को देखकर
| |
| − | कहता हैण्ण्ण्शुक्रिया दिल्ली !
| |
| − | कहीं कुछ गरज रहा है
| |
| − | मगर यहा¡ शान्ति है
| |
| − | बहुत तेज लहरें हैं और
| |
| − | शीशे की भारी पेंदेवाली नाव èाीरे-èाीरे डोल रही है
| |
| − |
| |
| − | हवा के खसखसी पर्दे में एक कहानी बू¡द-बू¡द उतर रही है।
| |
| − | यह विजयगाथा है पुरुष की
| |
| − | पिघले मोम की तरह वह
| |
| − | ठहर-ठहरकर उतर रही है
| |
| − | और
| |
| − | स्त्राी मोटे कपड़े की तरह उसे सोख रही है
| |
| − | ण्ण्ण्और वेतन दस हजार
| |
| − | मंजू मुझे यकीन था, यकीन है और यकीन रहेगा
| |
| − | तुम ऐसे नहीं जा सकतीं
| |
| − | एक िफ्रज और एक कूलर का अभाव
| |
| − | और दिल्ली,
| |
| − | हमारे प्यार को नहीं खा सकते
| |
| − | जब तक मैं हू¡
| |
| − | हू¡ण्ण्ण्हू¡ण्ण्ण्हू¡ण्ण्ण्हू¡
| |
| − | चील की तरह आकाश में पहु¡ची
| |
| − | और बगुले की तरह हौले-हौले उतरी स्त्राी के ऊपर यह हुंकार
| |
| − |
| |
| − | बिल्ली का नवजात बच्चा
| |
| − | जैसे अपने नंगे, गुलाबी गोश्त से सा¡स लेता है
| |
| − | वैसे ही पत्नी
| |
| − | रोमछिद्रों से इसे ग्रहण करती है
| |
| − | `नाक, कान और आ¡ख
| |
| − | ये कितनी पुरानी चीजें हैं जीवन के मुकाबले´–वह कहती है
| |
| − | और खुल जाती है
| |
| − | `सफल पति का प्यार´
| |
| − | तारें भरे आसमान में मस्ती से टहलते हुए वह
| |
| − | अपने आपसे कहती है
| |
| − | `सचमुच इस कालातीत अनुभव के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं, मित्राो´
| |
| − | 4
| |
| − | पूरब में पौ फट रही है और
| |
| − | दिलों में दो-दो नयी, हरी पत्तिया¡ सशंक उठ खड़ी हुई हैं
| |
| − | पुरुष सूरज के लाल गोले को जा¡घों पर रखता है
| |
| − | और उसमें से एक चौकोर टुकड़ा काटकर
| |
| − | पत्नी को देता है
| |
| − | ण्ण्ण्चखो, अब यह हमारा है
| |
| − | यह सब कुछ हमारा है
| |
| − | स्त्राी का क्षण-क्षण आकार बदलता मांस
| |
| − | पति की देह में नए सिरे से जड़ें ढू¡ढ़ता है
| |
| − |
| |
| − | तरबूज के गूदे से लथपथ दो नंगे बदन
| |
| − | गली के ऊपर मु¡डेर पर आते हैं
| |
| − | उजली हवा में थरथराते हैं
| |
| − | भयभीत जनसाèाारण की पुतलियों में सरसराते हैं
| |
| − | और एक-दूसरे को ह¡सी देते हुए कहते हैं
| |
| − | अब यह सभी कुछ हमारा है
| |
| − |
| |
| − |
| |
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| |
| − | {{KKRachna
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| − | |रचनाकार=आर. चेतनक्रांति
| |
| − | |संग्रह=शोकनाच / आर. चेतनक्रांति
| |
| − | }}
| |
| − |
| |
| − | सीलमपुर की लड़किया¡
| |
| − |
| |
| − | सीलमपुर की लड़किया¡ `विटी´ हो गइ±
| |
| − |
| |
| − | लेकिन इससे पहले वे बूढ़ी हुई थीं
| |
| − | जन्म से लेकर पन्द्रह साल की उम्र तक
| |
| − | उन्होंने सारा परिश्रम बूढ़ा होने के लिए किया,
| |
| − | पन्द्रह साला बुढ़ापा
| |
| − | जिसके सामने साठ साला बुढ़ापे की वासना
| |
| − | विनम्र होकर झुक जाती थी
| |
| − | और जुग-जुग जियो का जाप करने लगती थी
| |
| − |
| |
| − | यह डॉक्टर मनमोहन सिंह और एमण् टीण्वीण् के उदय से पहले की बात है।
| |
| − |
| |
| − | तब इन लड़कियों के लिए न देश-देश था, न काल-काल
| |
| − | ये दोनों
| |
| − | दो कूल्हे थे
| |
| − | दो गाल
| |
| − | और दो छातिया¡
| |
| − |
| |
| − | बदन और वक्त की हर हरकत यहा¡ आकर
| |
| − | मांस के एक लोथड़े में बदल जाती थी
| |
| − | और बन्दर के बच्चे की तरह
| |
| − | एक तरप़+ लटक जाती थी
| |
| − |
| |
| − | यह तब की बात है जब हौजख़्ाास से दिलशाद गार्डन जानेवाली
| |
| − | बस का कंटक्टर
| |
| − | सीलमपुर में आकर रेजगारी गिनने लगता था
| |
| − |
| |
| − | फिर वक्त ने करवट बदली
| |
| − | सुिष्मता सेन मिस यूनीवर्स बनीं
| |
| − | और ऐश्वर्या राय मिस वल्र्ड
| |
| − | और अंजलि कपूर जो पेशे से वकील थीं
| |
| − | किसी पत्रिाका में अपने अर्द्धनग्न चित्रा छपने को दे आयीं
| |
| − | और सीलमपुर, शाहदरे की बेटियों के
| |
| − | गालों, कूल्हों और छातियों पर लटके मांस के लोथड़े
| |
| − | सप्राण हो उठे
| |
| − | वे कबूतरों की तरह फड़फड़ाने लगे
| |
| − |
| |
| − | पन्द्रह साला इन लड़कियों की हज़ार साला पोपली आत्माए¡
| |
| − | अनजाने कम्पनों, अनजानी आवाज़ों और अनजानी तस्वीरों से भर उठीं
| |
| − | और मेरी ये बेडौल पीठवाली बहनें
| |
| − | बुजुर्ग वासना की विनम्रता से
| |
| − | घर की दीवारों से
| |
| − | और गलियों-चौबारों से
| |
| − | एक साथ तटस्थ हो गइ±
| |
| − |
| |
| − | जहा¡ उनसे मुस्कुराने की उम्मीद थी
| |
| − | वहा¡ वे स्तब्èा होने लगीं,
| |
| − | जहा¡ उनसे मेहनत की उम्मीद थी
| |
| − | वहा¡ वे यातना कमाने लगीं
| |
| − | जहा¡ उनसे बोलने की उम्मीद थी
| |
| − | वहा¡ वे सिर्फ अकुलाने लगीं
| |
| − | उनके मन के भीतर दरअसल एक कुतुबमीनार निर्माणाèाीन थी
| |
| − | उनके और उनके माहौल के बीच
| |
| − | एक समतल मैदान निकल रहा था
| |
| − | जहा¡ चौबीसों घंटे खट्खट् हुआ करती थी।
| |
| − | यह उन दिनों की बात है जब अनिवासी भारतीयों ने
| |
| − | अपनी गोरी प्रेमिकाओं के ऊपर
| |
| − | हिन्दुस्तानी दुलहिनों को तरजीह देना शुरू किया था
| |
| − | और बड़े-बड़े नौकरशाहों और नेताओं की बेटियों ने
| |
| − | अंग्रेजी पत्राकारों को चुपके से बताया था कि
| |
| − | एक दिन वे किसी न किसी अनिवासी के साथ उड़ जाए¡गी
| |
| − | क्योंकि कैरियर के लिए यह जरूरी था
| |
| − | कैरियर जो आजादी था
| |
| − |
| |
| − | उन्हीं दिनों यह हुआ
| |
| − | कि सीलमपुर के जो लड़के
| |
| − | प्रिया सिनेमा पर खड़े युद्ध की प्रतीक्षा कर रहे थे
| |
| − | वहा¡ की सौन्दर्यातीत उदासीनता से बिना लड़े ही पस्त हो गए
| |
| − | चौराहों पर लगी मूर्तियों की तरह
| |
| − | समय उन्हें भीतर से चाट गया
| |
| − | और वे वापसी की बसों में चढ़ लिए
| |
| − |
| |
| − | उनके चेहरे खू¡खार तेज से तप रहे थे
| |
| − | वे साकार चाकू थे,
| |
| − | वे साकार शिश्न थे
| |
| − | सीलमपुर उन्हें जज्ब नहीं कर पाएगा
| |
| − | वे सोचते आ रहे थे
| |
| − | उन्हें उन मीनारों के बारे में पता नहीं था
| |
| − | जो इèार
| |
| − | लड़कियों की टा¡गों में तराश दी गइ± थीं
| |
| − | और उस मैदान के बारे में
| |
| − | जो उन लड़कियों और उनके समय के बीच
| |
| − | जाने कहा¡ से निकल आया था
| |
| − | इसलिए जब उनका पा¡व उस जमीन पर पड़ा
| |
| − | जिसे उनका स्पर्श पाते ही èासक जाना चाहिए था
| |
| − | वे ठगे से रह गए
| |
| − |
| |
| − | और लड़किया¡ ह¡स रही थीं
| |
| − | वे जाने कहा¡ की बस का इन्तजार कर रही थीं
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| − | और पता नहीं लगने दे रही थीं कि वे इन्तजार कर रही हैं।
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| − | {{KKGlobal}}
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| − | {{KKRachna
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| − | |रचनाकार=आर. चेतनक्रांति
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| − | |संग्रह=शोकनाच / आर. चेतनक्रांति
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| − | हिन्दू देश में यौन-क्रान्ति
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| − | मदो± ने मान लिया था
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| − | कि उन्हें औरतें बा¡ट दी गइ±
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| − | और औरतों ने
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| − | कि उन्हें मर्द
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| − | इसके बाद विकास होना था
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| − | इसलिए
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| − | प्रेम और काम, और क्रोèा और लालसा और स्पद्धाZ,
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| − | और हासिल करके दीवार पर टा¡ग देने के पवित्रा इरादे के पालने में
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| − | बैठकर सब झूलने लगे
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| − | परिवारों में, परिवारों की शाखाओं में
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| − | कुलों और कुटुम्बों में–जातियों-प्रजातियों में
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| − | विकास होने लगा
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| − | जंगलों-पहाड़ों को
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| − | म्याऊ¡ और दहाड़ों को
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| − | रौंदते हुए क्षितिज-पार जाने लगा
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| − | इतिहास के कूबड़ में
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| − | ढेरों-ढेर गोश्त जमा होने लगा
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| − | पत्थर की बोसीदा किताब से उठकर डायनासोर चलने लगा
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| − | कि यौवन ने मारी लात देश के कूबड़ पर और कहा–
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| − | रुकें, अब आगे का कुछ सफर हमें दे दें
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| − | पहले स्त्राी उठी
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| − | जो सुन्दर चीजों के अजायबघर में सबसे बड़ी सुन्दरता थी
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| − | और कहा, कि पेडू में ब¡èाा हुआ यह नाड़ा कहता है
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| − | कि कीमतों का टैग आप कहीं और टा¡ग लें महोदय
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| − | इस अकड़ी काली, गोल गा¡ठ को अब मैं खोल रही हू¡
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| − | सुन्दरता ने असहमति के प्रचार-पत्रा पर
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| − | सोने की मुहर जैसा सुडौल अ¡गूठा छापा और नाम लिखा–अतृप्ति
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| − | कूबड़ थे जिनमें अकूत èान भरा था
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| − | कुए¡ थे जिनमें लालसा की तली कहीं न दिखती थी
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| − | पर सुन्दरता का दावा न था कि वह इस असमतलता को दूर करेगी
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| − | इरादों की ऋजुरैखिक यात्राा में वह थोड़ी अलग थी
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| − | उसने एक नई èारती की भराई शुरू की
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| − | जो सितारे की तरह दिखती थी
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| − | चा¡द की तरह
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| − | जिसकी मिट्टी में गुरुत्व नहीं था
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| − | जिसके ऊपर, नीचे, दाए¡, बाए¡ आसमान था
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| − | तो भी घर-घर में एक इच्छा जवान होती थी
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| − | कि बेशक अमेरिका के बाद ही
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| − | पर एक दिन हम भी वह
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