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"वे तुम्हें मज़बूर करेंगे / आर. चेतनक्रांति" के अवतरणों में अंतर

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वे तुम्हें मज़बूर करेंगे अपने समर्पण से।
 
वे तुम्हें मज़बूर करेंगे अपने समर्पण से।
 
 
 
 
 
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छटपटाकर जगह बदलना
 
 
मैंने जब साèाुता से कहा–विदा
 
और घूमकर दुर्जनता की बा¡ह गही
 
वह कोई आम-सा दिन था
 
खूब सारी खूबियों की खूब सारी गलियों में
 
आवाजाही तेज थी
 
मिन्दर के चबूतरे पर
 
एक चिन्तित आदमी
 
सिर झुकाए, आ¡खें मू¡दे
 
भूखों को भोजन बा¡ट रहा था
 
वह इतना डर गया था
 
कि भूखे के हाथ का¡पते तो पत्तल मु¡ह पै दे मारता
 
 
बैठे-बैठे
 
एक लम्बा अरसा बीत गया था
 
मेरे गुस्से की नोकें एक-एक कर डूबती जा रही थीं
 
असहमत होने की इच्छा पिलपिली हो गई थी
 
दिल जरा-जरा-सी बात पर उछल पड़ता था
 
और खुदयकीनी पिघले गुड़ की तरह नसों में भर गई थी
 
 
चलते-चलते भीतर कुछ कौंèाता था
 
और खो जाता था
 
वक्“त की पाबन्दी
 
बुजुगो± का सम्मान/सफेद चीजों का दबदबा
 
दफ्तर की ईमानदारी
 
एक अच्छे देश का नागरिक होने की जिम्मेदारी
 
और दोहरे-तिहरे अथो±वाली अर्थगभाZ कविताए¡
 
पिचकारी में पानी की तरह
 
हर जगह मेरे भीतर भर गई थीं
 
कोई जरा-सा कहीं दबाता
 
तो अच्छाई अच्छों की पीक की तरह
 
या प्राणप्यारी कुंठा के फोड़े की मवाद की तरह
 
फक् से फुदक पड़ती
 
 
लोग मुझसे खुश थे
 
और अपना स्नेहभाजन बनाने को देखते ही टूट पड़ते
 
पालतुओं को पालने का शौक आम था
 
जंगलियों के लिए चििड़याघर थे
 
बस एक वीरप्पन था जो जंगल में बना हुआ था
 
 
तभी बस शरारतन,
 
और थोड़ा ऊब की प्रेरणा से
 
और इसलिए भी डरकर, कि कहीं भगवान ही न हो जाऊ¡
 
मैंने
 
भलमनसाहत की दमघोंटू अगरबत्तियों से
 
गोश्त की भूरी झालरों में सजी बैठी मनुष्यता से
 
सफेद फालतू मांस से लदे अमीर बच्चे की आतंकवादी सुन्दरता से
 
छुटकारा पाना शुरू किया
 
पवित्राता के बौने दरवाजों की मर्यादा से निर्भय हो
 
मैं èाड़èाड़ाकर चला
 
जैसे सुन्दर कारों के बीच ट्रक जाता है
 
और कम्युनिटी सेंटर से बाहर हो गया, जहा¡
 
`बिगब्रांड´ कूल्हों और
 
अच्छाई के भरोसे  दुभाZग्य से लापरवाह
 
चेहरों की सभा थी
 
और दरवाजे में वह मरघिल्ला चौकीदार
 
ईमान-की-हवा-में-तराश-दी-गई-मूर्ति-सा
 
अपने तबके के अहिंò बेईमानों की जामातलाशी कर रहा था
 
नोटिसबोर्ड पर लिखा था
 
कि देवताओं की पहरेदारी नहीं करता जो
 
वो हर कमजोर चोर होता है
 
 
सड़क पर मैंने
 
बदबूदार खुली-आम हवा में
 
लम्बी सा¡स भरी और देखा
 
èार्मग्रन्थों और कानून की किताबों की पोशाकें पहने
 
अच्छाई के पहरेदारों का जुलूस चला जाता था
 
 
बीचोंबीच अच्छाई थी
 
लम्बा बुकाZ पहने
 
ताकत को कमजोर बुरे लोगों की नजरों से बचाती
 
सिंहासन की ओर बढ़ी जाती
 
फट्-फट् फूटते गुब्बारों
 
और पटाखों के अच्छे, अलंघ्य शोर में सुरक्षित
 
स्वच्छ शामियानों से गुजरती
 
चा¡दनियों पर जमा-जमाकर पैर èारती
 
शक्ति के साथ
 
आमिन्त्रात करती
 
 
लेकिन मैं बाफैसला
 
कोढ़िन कमजोरी के जर्जर आ¡चल में हटता हुआ पीछे
 
लड़ता मन में अच्छाई के ज्वार से
 
ताकत के भड़कते बुखार से
 
करता ही गया विदा उन्हें एक-एक कर
 
जो जाते थे
 
अच्छेपन की रौशन दुनिया में
 
अच्छाई के राजदण्ड से शासन करने।
 
 
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श्रद्धावादी वक्त में
 
 
श्रद्धा का सूर्य शिखर पर था
 
सबसे ठंडे मौसम में भी जो गर्माती रहती थी भीतर ही भीतर
 
चपल चापलूसी की चलायमान चा¡दई गुफा में दहकती थी जो सतत,
 
ठंडी अपराजेय  वह आग
 
अपनी नीली लपटों से झुलसाती सृष्टि को
 
 
कि पिघल बह गया शरीर
 
शरीर के डबरे में भर गया
 
बची बस एक आ¡ख तैरती
 
पूछती
 
बोल-बोलकर–
 
कि श्रद्धा से लबालब इस महागार में है कोई सीट खाली
 
बैठकर हिलने के लिए
 
दमकते वक्तृत्व की ताल पर
 
झमाझम व्यक्तित्व की चाल पर !
 
 
कि हम अपने पहलों से थोड़े छोटे
 
हम चाहते हैं कि
 
पहले से छोटी हमारी आज की दुनिया में
 
हमें हमारी जगह मिले
 
 
कि कल हम भी
 
आज के मंच से छोटे
 
एक मंच के मालिक होंगे
 
श्रद्धा उपजाने की मशीन से
 
कातेंगे वहा¡ बैठ अपनी नाप से छोटे कपड़े
 
अपने बादवालों के लिए
 
 
जितनी मेहनत हमने की
 
उससे कम मेहनत करने की सुविèाा देंगे
 
अपने अनुजों को
 
सिखाए¡गे उन्हें इससे भी घोर अनुकरण
 
और मनीषा जिसके जेबी संस्करण
 
श्रद्धेय ने हमें दिए
 
उन्हें हम आनेवाले उन जिज्ञासुओं की
 
उ¡गलियों पर बटन बनाकर èार देंगे
 
कि वे जब चाहें
 
पा लें अपने पापों के तर्क
 
 
सो, हे मानवी मेèाा के साकार पुरुष
 
अपने असंख्य खम्भों वाले इस छोटे से दालान में
 
हमें बताइए, कि अपनी इन योजनाओं के साथ हम कहा¡ बैठें !
 
 
हमें अभिनय करना पड़ता है परवाह का
 
बीच बाजार, जब हम पकड़े जाते हैं,
 
अपने अगलों को हम देंगे खूब सारा अ¡èोरा
 
कि सुस्थ, बाइत्मीनान बैठ वे सोच सकें
 
सबसे बकवास किसी मसले पर,
 
मसलन मसला मालिक के मूड का
 
फसलन फसला फालिक के फूड का
 
हमसे भी ज्यादा सुलभ तुक उन्हें मिले
 
हर जंग वे जीतें और अंग भी न हिले
 
 
आपने हमें दी सूक्तिया¡
 
हम उन्हें दें कूक्तिया¡।
 
 
 
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आगे के बारे में एक ईष्र्याप्रसूत कविता
 
 
वे तो बढ़े ही चले जा रहे थे
 
आगे, और आगे
 
 
और आगे के बारे में उनकी राय तय हो चुकी थी
 
कि जहा¡ पीछेवालों की इच्छाए¡ जाकर पसर जाए¡
 
कि जहा¡ आप दयनीयता पर क्रोèा करने को स्वतन्त्रा हों
 
कि जहा¡ जमाने-भर की ईष्र्याए¡
 
आपका रास्ता बुहारें
 
उस जगह को आगे कहते हैं
 
 
वे आगे वहा¡
 
दुनिया-भर की ईष्र्या पर मुटिया रहे थे
 
और बीच-बीच में फोन करके पूछते थे,
 
हैलो, अरे तुम कहा¡ ठहरे हुए हो ?
 
 
रास्ता उन्हें अèयात्म की तरह लगता था
 
जैसे किसी को धर्म का डर लग जाता है
 
कि लीक छोड़कर
 
चाय की दूकान तक भी जाते
 
तो `चलू¡-चलू¡´ से छका मारते
 
 
एक किसी भी दिन
 
वे उतरते नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर
 
और शहर के सबसे स्मार्ट रिक्शावाले को
 
रास्ता बताते हुए शहर पार करने लगते
 
कि जैसे बरसों से इसे जानते हों
 
 
वे अपने भीतर और शहर में
 
एक खाली कुआ¡ तलाश करते
 
जो उन्हें मिल जाता
 
 
वे एक मकसद का आविष्कार करते
 
जो पिछले एक करोड़ साल से इस दुनिया में नहीं था
 
वे किराए के पहले कमरे की कु¡आरी दीवार की तरह
 
मु¡ह करके खड़े होते, और कहते–
 
कि जो जा चुके हैं आगे, उन्हें मेरा सलाम भेजो
 
कि मैं आ गया हू¡
 
कि यह लकीर जिसे तुम रास्ता कहती हो
 
अब बढ़ती ही जाएगी, बढ़ती ही जाएगी मेरे पैरों के लिए
 
कि मैं रुकने के लिए नहीं हू¡
 
चलो, नीविबन्èा खोलो, झुको और खिड़की बन जाओ
 
 
और ऊ¡चाइयों पर खुदाई शुरू कर देते
 
कि कु¡ओं को पाटना तो पहला काम था
 
कुए¡ जो लालसा के थे
 
 
यू¡ एक करोड़ साल बाद
 
राजèाानी दिल्ली में एक और सृष्टि का निर्माण शुरू होता
 
 
एक बौना आदमी
 
आसमान के इस कोने से उस कोने तक तार बा¡èा देता
 
कि यहा¡ मेरे कपड़े सूखेंगे
 
भीड़ के मस्तक को खोखला कर एक अहाता निकाल देता
 
कि यहा¡ मेरा स्कूटर, मेरी कार खड़े होंगे
 
दुनिया के सारे आदमियों को
 
एक-के-ऊपर-एक चिपकाकर अन्तरिक्ष तक पहु¡चा देता
 
कि इस सीढ़ी से कभी-कभी मैं इन्द्रलोक
 
जाया करू¡गा–जस्ट फॉर ए चेंज
 
 
और इन्द्रलोक पहु¡चकर अकसर वह फोन करता,
 
पूछता, हैलो, अरे तुम कहा¡ अटक गए ?
 
 
इस तरह इन छवियों से छन-छनकर
 
जो आगे आता था
 
वह लगभग-लगभग दिव्य था
 
लगभग-लगभग एक तिलिस्म
 
कि हर गली के हर मोड़ से उसके लिए रास्ता जाता था
 
लेकिन सबके लिए नहीं
 
कि वह दुकानों-दुकानों बिकता था पुिड़या में
 
पर सबके लिए नहीं
 
 
कि वह कभी-कभी सन्तई हा¡क लगाता था
 
खड़ा हो बीच बजार
 
लेकिन वह भी सबके लिए नहीं
 
 
रहस्य यही था
 
कि वह सबका था
 
लेकिन सबके लिए नहीं था
 
ऐसे उस आगे की आ¡त में उतरे जाते थे कुछ–
 
अंग्रेजी दवाई-से–तेज़ और रंगीन
 
और कुछ अटक गए थे, ठीक मुहाने पर आकर कब्ज की तरह
 
और सुनते थे कभी-कभी
 
पब्लिक बूथ पर हवा में लटके
 
चोंगे से रिसती हुई एक ह¡सती-सी आवाज़
 
कि, हैलो··, अरे तुम कहा¡ फ¡से हो जानी !
 
 
 
 
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खुशी के अन्तहीन सागर में
 
 
खुशी खत्म ही नहीं होती
 
 
कुछ ऐसी मस्ती छाई है
 
कि रात-भर नींद नहीं आई है
 
फिर भी सुबह चकाचक है
 
 
िहृतिक रौशन प्यारा-प्यारा
 
मुन्नी की आ¡खों का तारा
 
 
सेवानिवृत्त दद्दू कर्नल जगदीश
 
बाल्कनी में जा¯गग करते-करते हुलसे–
 
नायकहीन अ¡èोरे वक्तों का उजियारा
 
 
आमलेट के मोटे पर्दे के पीछे से
 
बैंक मनीजर कुक्कू ने मुस्कान उठाई–
 
वह देवता है खुशियों का
 
सुन्दर सुबहों को जगानेवाला  परीजाद
 
 
देखो, मछलिया¡ उसकी देह की क्या कहती हैं–
 
लिपििस्टक बहू
 
बाथरूम के दरवाजे पर विजयपताका-सी लहराई
 
 
पर्दे के इस कोने से उस कोने तक दरिया-सी बहती हैं–
 
मम्मू बोलीं
 
 
साठ साल की उजले दा¡तोंवाली मम्मू
 
नए दौर का नया ककहरा सीख रही हैं–
 
क ख ग घ च छ ट ठ, मेरी घटती उम्र का घटना
 
उसके ही शुभ-शिशु-आनन के दरशन का परताप
 
मुझे यह मेरे खेल-खिलौने दिन वापस देता है
 
 
इसके वह कई करोड़ लेता है–
 
ज्ञानी मुन्ना बाबा ने खुशियों-भरी सभा में अपनी पोथी खोली
 
 
`स्टारडस्ट के पण्डित´, चुप कर–दद्दू कड़के
 
कीमत का मत जिक्र चला, ओ निèाZन माथे
 
कीमत का जिक्र अशुभ होता है
 
तुझसे कभी किसी ने
 
किसी चीज की कीमत पूछी, बोल
 
कीमत तो है शगुन
 
असल चीज है खुशी
 
 
खुशी जो खत्म न हो–
 
डाक्यूमेंट्री फिल्मों के निर्माता
 
निशाचर
 
पापा
 
घर के मुखिया
 
खुशियों के कालीन पै पग èारते ही चहके
 
खुशी ही रचे उन्हें
 
जो करते लीड जमाने को
 
पिछले हफ्ते नहीं सुने थे वचन
 
गुरु खुशदीप कमल सिंहानीजी के ?
 
खुशी ने ही तो उसे रचा है
 
उस मुस्काते, उस उम्र घटानेवाले जादूगर नायक को
 
 
और हमें भी तो
 
रचा खुशी ने ही–
 
बेडरूम से पर्दा फाड़
 
भैया बड़े कृष्ण भक्त
 
पोप्पर्टी डीलर, बोले–
 
खुशी की गागर èारो सहेज
 
शेष कृष्णा पर छोड़ो
 
आ¡खें मू¡दो–अन्तर के संगीत में नाचो
 
खुशी के अन्तहीन सागर के तल पर
 
हृदय से झरते जल पर डोलो
 
(èाूम èााम èााम èाूम èामक èामक èान्न)
 
कृष्ण हरे बोलो।
 
 
 
 
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खुदयव़+ीनी
 
 
खुदयव़+ीनी भी एक चीज़ थी
 
जैसे कोट और कमीज़
 
बदन पर डालकर निकलते तो खुद-ब-खुद बावि़+यों से अलग हो जाते
 
पैसों की तरह हम उसे कमाया करते
 
सहेजकर रखते
 
सन्तानों के लिए
 
 
वह मोटे तले का जूता थी
 
पुरानी घोड़े की नाल पर कसा हुआ
 
सब आवाज़ों के ऊपर जो ठहाक्-ठहाक् बजता
 
मिमियाती हुई जातियों और पीढ़ियों
 
और देश के सुदूर कोनों से ढेर-ढेर संशय लिये आती भीड़ के मु¡ह पर पड़ता
 
 
दुनिया के मु¡ह पर दरवाजा बन्द कर
 
हम उसका रियाज़ करते
 
शब्द बदलते, वाक्यों के तवाज़Äन में हेर-फेर करते
 
सा¡स में फू¡कार भरते
 
पिंडलियों में इस्पात ढालते
 
विशेषज्ञों से सलाह लेते
 
और तब युद्ध पर निकलते
 
और जीतकर लौटते
 
 
हारने की दशा में भी हम न हारते
 
हम सोचते कि हम जीत रहे हैं
 
और हम जीत जाते
 
 
खुदयव़+ीनी हमारी
 
पोले ढोल के ऊपर चमड़े का शानदार खोल थी
 
जब भी खतरा दिखाई देता,
 
हम उसे बेतहाशा पीट डालते
 
और सारे समीकरण बदल जाते।
 
 
 
 
 
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मालिक का छत्ता
 
 
आसमान काला पड़ रहा था
 
èारती नीली
 
जब हमारे मालिक ने
 
अपने मासिक दौरे पर पहला व़+दम दफ्“तर में रखा
 
दफ्“तर में बहुत सारी कोटरें थीं
 
शुरू में आदमी भरती किए गए थे
 
 
मालिक गुजरा तो
 
हर कोटर कसमसायी, थोड़ी-सी तड़की
 
जैसे आकाश में बिजली कौंèाी हो
 
और उनकी उपस्थिति को महसूस किया गया
 
 
दूर से देखो तो समाज मèाुमिक्खयों के छत्ते की तरह दिखाई देता है
 
बन्द और ठोस
 
लेकिन उसमें रास्ते होते हैं, बहुत सारे छेद
 
 
मालिक उन सबसे गुजरकर यहा¡ तक पहु¡चा है
 
उसके बदन से शहद टपक रहा है
 
सब उसके पीछे हैं
 
बस, एक चटखारा
 
 
हम समर्थ थे
 
और सुलझे हुए
 
और नए फैशन के कपड़ों से सजे
 
लेकिन उस क्षण हमारे ऊपर
 
हमारा वश नहीं रह गया था
 
हम किसी भी पल सो सकते थे
 
हम किसी भी पल रो सकते थे
 
 
वे कुछ कह देते तो
 
हम तालिया¡ बजाकर स्वागत करते
 
लेकिन वे कुछ नहीं बोले
 
और चले गए।
 
 
 
 
 
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बैंक में हम थे, हवा न थी
 
 
बैंक में हम थे, हवा न थी
 
हम सा¡सों की बची बासी हवा में सा¡सें लेकर
 
अर्थव्यवस्था में जिन्दा थे
 
 
जिन्दा थे इस ख्याल से भी कि हम बैंक में हैं
 
और इससे भी कि देखो तो कितने होंगे जो बैंक में नहीं होते
 
हम विकासलीला की हत्शीला भूमि के बैंक में थे
 
 
बैंक में हवा न थी, पैसे थे
 
जैसे जंगल में हवा दिखती नहीं
 
पर जिन्दा रखती है
 
ऐसे ही बैंक में पैसे
 
दिखते नहीं, पर जिन्दा रखते हैं
 
 
लेकिन हवा अपने जीवितों को गुस्सा नहीं देती
 
पैसे अपने जीवितों को गुस्सा देते हैं
 
 
बैंक में हवा न थी, गुस्सा था
 
जिनकी पासबुक में पैसे ज्यादा थे
 
उनका गुस्सा था
 
जिनकी पासबुक में कम थे
 
उनके ऊपर गुस्सा था
 
उनके ऊपर बैंक के कम्प्यूटरों का भी गुस्सा था
 
वे ढों की आवाज के साथ चिड़चिड़ाकर ह¡सते थे
 
 
बैंक में हवा न थी, कम्प्यूटर थे
 
और हर कम्प्यूटर के साथ
 
कॉर्बन कॉपी की तरह नत्थी एक क्लर्क था
 
जिनकी पासबुक भारी थी
 
उन्हें देख वह भी रिरियाता था
 
जिनकी हल्की थी, उन्हें गरियाता था
 
 
बैंक में हवा न थी, समाज था
 
समाज अपनी आदतों में कतई सहनशील न था
 
वह हिकारत से देखता था
 
और देख लिये जाने पर पू¡छ दबाकर कु¡कुआता था
 
वह घर से योजना बनाकर अगर चलता था
 
तो ही विनम्र हो पाता था
 
अन्यथा इनसानियत के कैसे भी कुदृश्य पर
 
सुतून-सा खड़ा रह जाता था
 
 
बैंक में हवा न थी, सुतून थे
 
कदम-कदम पर तने खड़े
 
कि जैसे गिलट के सिक्के चिन दिए गए हों
 
 
एक खिड़की थी
 
जिसके पीछे हवा जोर मार रही थी
 
और आगे दो खातेदार हिजड़े
 
खड़े हवा के लिए लहरा-बल खा रहे थे
 
 
बैंक में हवा न थी
 
पौरुष से अकड़े सैकड़ों सुतून
 
और नपुंसकता के खाते पर पानी-पानी होते
 
दो हिजड़े थे,
 
जब मैं पहु¡चा,
 
वे भी जा रहे थे।
 
 
 
 
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भगवान का भक्त
 
 
कृतज्ञ होकर मैंने ईश्वर से डरने का फैसला किया
 
 
जब बिल्ली अ¡गड़ाई लेकर चलती
 
जब तीसरी आ¡ख का कैमरा िक्लक करता
 
और अनिष्ट का देवता क्लोजअप में मुस्कुराता
 
 
जब दूर कहीं से कोई डरावनी आवाजें भेजता
 
जब किताबों में लिखे काले मु¡हवाले शब्द
 
छिपकलियों और तिलचट्टों की तरह पीले पन्नों से निकलते
 
और सरसराकर नीली दीवारों पर फैल जाते
 
मैं ईश्वर का आभार व्यक्त करता कि मुझे कुछ नहीं हुआ
 
 
संसार वीरता में मस्त था
 
कण-कण में युद्ध था
 
पाए जा चुके मकसद और हासिल किए जा चुके किले थे
 
जो कहते थे कि रुको मत
 
 
मैं कृतज्ञता का मोटा कम्बल ओढ़े
 
कदम-कदम खड़े
 
भिखारियों को चेतावनी की तरह सुनता
 
हर मिन्दर को शीश नवाता
 
प्रणाम करता हर सफेद चीज को
 
कहता हुआ कि कृपा है, आपकी कृपा है
 
गर्दन झुकाए चला जाता
 
सबसे घातक भीड़ के भी बीच से
 
मुस्कुराता हुआ
 
बुदबुदाता हुआ–दूर हटो दूर हटो दूर हटो कीड़ों !
 
 
 
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प्रयाण
 
 
चलो प्रिये, दिखावा करें
 
कि दुश्मन
 
अपने दिल की आग में जल मरें
 
 
सारे कपड़े पहन लो
 
सारी पैंटें सारी शटे±, सारी जूतिया¡ सारी टोपिया¡
 
घर का सब सामान बीनकर
 
सिर पर èार लो
 
झाड़ो घर का कोना-कोना
 
इक-इक कण सोने का
 
चा¡दी का  झोली में भर लो
 
नयी झाडू भी जिसमें चीते की पू¡छ के बाल लगे हैं
 
 
सबसे ऊपर रखो हािर्दक शुभकामनाए¡
 
दिल की शक्ल में कटी लाल कागज की झंडी
 
 
रुको, जरा फोन कर लेते हैं
 
 
सुनिए, हम लोग यहा¡ अष्टभुजा चौराहे पर खड़े
 
सेल से फोन कर रहे हैं
 
हम आपके यहा¡ दिखावा करने आ रहे थे
 
आपकी तैयारी हो गई है न
 
 
जी हा¡, जी हा¡ बस ऐसे ही सोचा
 
कि चलो पहले सावèाान कर दें !
 
 
 
 
 
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एक बार फिर करुणामय
 
 
 
मैंने सारा खतरा अपनी तरफ रखा
 
और शहर के बीचोबीच खड़े होकर पूछा
 
कि अगर आप चाहें तो बता दें कि सच क्या है
 
 
लोग मेरे भोलेपन पर चकित हुए
 
और ह¡से
 
और कुर्सियों पर पीठ टिकाकर शान्त हो गए
 
 
क्योंकि मेरे पास सच को जानने का कोई तरीका नहीं था
 
और क्योंकि उन्हें झूठ से अनेक फायदे थे
 
 
इसलिए
 
उन्होंने बिल्कुल सच की तरह सहज होकर कहा
 
कि सच तो यही है जो तुम देख रहे हो
 
 
मैंने सुना
 
और अपनी हताशा को
 
जाहिर न होने देने के लिए देर तक मशक्कत की
 
 
कि अगर वे सुकून में चले गए थे
 
तो उन्हें अपने सन्देह का सुराग देना हिंसा थी
 
वह उन्हें उत्तेजना और पीड़ा में ले जाती
 
 
मैंने खतरे को सहेजकर भीतर रखा
 
प्रलय के अगम कूप को
 
अपने गोश्त से ढा¡पा
 
 
और ईश्वर से कहा कि चिन्ता मत करो
 
 
और सबकी तरफ देखकर मुस्कुराया एक अहमक ह¡सी
 
कि वे आश्वस्त रहें
 
कि डरें नहीं कि उनका झूठ बेपर्दा था
 
कि कोई उन्हें आकर सजा देगा
 
उनके झूठ का रास्ता रोकेगा
 
 
और ईश्वर से कहा कान में
 
कि चलो अभी स्थगित करते हैं
 
कि उन्हें अपनी चालाकी
 
और चतुराई
 
और कानाफूसी
 
और वीरता की तरह बरतनेवाली
 
कायरता से और सफेदी
 
और सफाई से
 
बाहर आते हुए अपनी सीढ़िया¡ उतरने दो
 
कुछ वक्त उन्हें और दो।
 
 
 
 
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|रचनाकार=आर. चेतनक्रांति
 
|संग्रह=शोकनाच / आर. चेतनक्रांति
 
}}
 
 
दस हज़ार की नौकरी और
 
दाम्पत्य जीवन की एक सफल रात
 
 
अक्सर यह गुम रहती है
 
पीली, गुलाबी, हरी, नीली या जाने किस रंग की एक लट की तरह
 
उस èाूसर सफेद में
 
जो सात रंगों के मन्थन में सबसे अन्त में निकलता हैण्ण्ण्
 
और
 
सबसे अन्त तक रहता हैण्ण्ण्
 
 
आप अगर ढू¡ढ़ने निकलें तो इसे नहीं पा सकते
 
 
लेकिन कभी-कभी अकस्मात् यह घटित हो जाती है
 
जाहिर है पूर्वजन्मों के सद्कमो± और वर्तमान में अर्जित
 
वस्तुगत आत्मविश्वास की इसमें बड़ी भूमिका होती है
 
 
यह कहानी ऐसी ही एक गुमशुदा रात की है
 
जो शाम छ: बजे शुरू हुई, और कुम्हार के चक्के की तरह सुबह छ: बजे
 
तक èाुआ¡èाार चली
 
 
बेशक जो आपके सामने आए¡गे, वे चित्रा उस रफ्“तार का पता नहीं देते
 
जो अक्सर ठोस और èाारदार चित्राों के पीछे अकेली सिर èाुनती रहती है
 
1
 
आप देख रहे हैं
 
यह एक पत्नी है
 
सवेरेवाली गाड़ी जिससे छूट गई थी
 
पूरा दिन इसने अभारतीय काम-कल्पनाओं
 
और बच्चे के सहारे काटा
 
 
अब सूरज डूब रहा है
 
सुबह जिनको जाते देखा था
 
अब वे आते दिख रहे हैं
 
खुशी-खुशी èाक्का-मुक्की करते हुए
 
वे अपनी जमीनों और गलियों में उतर रहे हैं
 
 
देखिए पति भी आ रहा है
 
उसकी कुहनी खंजर है और पीठ ढाल
 
लेकिन यह तो रोज ही होता है
 
आज उसके हाथ में एक तरबूज भी है
 
गर्मियों का फल जो शीतलता देता है
 
लेकिन सिर्फ यही नहीं
 
नि:सन्देह आज उसके पास कुछ और भी है
 
देखिए
 
पत्नी के प्रेमियों से
 
आज वह जरा भी घबराया नहीं
 
सारे उसकी बगल से बिना सिर उठाए गुजर गए
 
वह भी, वह भीण्ण्ण्और वह भी जिसके बिना मुन्ना एक पल नहीं ठहरता
 
 
2
 
रात बरसों की सोई भावनाओं की तरह जाग रही है
 
और नींद में छेड़े सा¡प की तरह
 
कुंडली कस रही हैण्ण्ण्
 
पत्नी जैसा कि आप देख ही चुके हैं
 
अभी खू¡टा तुड़ाने पर आमादा थी,
 
èाीरे-èाीरे लौट रही हैण्ण्ण्
 
उसके भीतर उस मुगेZ के पंख एक-एक उतरकर
 
तह जमा रहे हैं जो रोज पिछले रोज से एक फुट ज़्यादा उड़ता है
 
और हवा में मारा जाता है,
 
अगले दिन फिर उड़ता है और फिर मारा जाता है,
 
 
संकुचित, सलज्ज और बिद्धण्ण्ण्मादा `बाकी कल´ के लिए सुरक्षित हो
 
अभी अपने प्रकृति-प्रदत्त नर के लिए तैयार हो रही हैण्ण्ण्
 
 
देखो
 
पति आज टहल नहीं रहा
 
बैठा घूरता है
 
उसकी नंगी जा¡घों पर तरबूज और हाथ में चाकू है
 
आ¡खों में आमन्त्राण
 
जिसे आज कोई नहीं ठुकरा सकता
 
इस आमन्त्राण के बारे में सुनते हैं कि
 
जिनके पूर्वजों ने एक हजार साल सतत् त्रााटक किया होण्ण्ण्
 
यह उन्हीं की आ¡खों में होता है
 
 
पत्नी आखिरी सीढ़ी पर आ चुकी है
 
बैठती है
 
वह कंघी से अपने पाप बुहार रही है,
 
जिनको उसने
 
दिन-भर सोच-सोचकर अर्जित किया था
 
पूणिZमा का चा¡द ठीक ऊपर चक्के की तरह घूम रहा है
 
घू¡ण्ण्ण्घू¡ण्ण्ण्घू¡ण्ण्ण्
 
पति को छुटपन से चा¡द का शौक रहा है
 
घूमता चा¡द उसकी आदिम इच्छाओं को जगाया करता है
 
3
 
स्त्राी के भीतर चा¡दनी का ज्वार उठ रहा है
 
स्वच्छ, èावल, शुभ्र पातिव्रत का कीटाणुनाशक फेन
 
उसकी देह के किनारों से
 
फकफकाकर उड़ रहा है, जैसे हांडी से दाल
 
पुरुष चीखता है और चा¡द को देखकर
 
कहता हैण्ण्ण्शुक्रिया दिल्ली !
 
कहीं कुछ गरज रहा है
 
मगर यहा¡ शान्ति है
 
बहुत तेज लहरें हैं और
 
शीशे की भारी पेंदेवाली नाव èाीरे-èाीरे डोल रही है
 
 
हवा के खसखसी पर्दे में एक कहानी बू¡द-बू¡द उतर रही है।
 
यह विजयगाथा है पुरुष की
 
पिघले मोम की तरह वह
 
ठहर-ठहरकर उतर रही है
 
और
 
स्त्राी मोटे कपड़े की तरह उसे सोख रही है
 
ण्ण्ण्और वेतन दस हजार
 
मंजू मुझे यकीन था, यकीन है और यकीन रहेगा
 
तुम ऐसे नहीं जा सकतीं
 
एक िफ्रज और एक कूलर का अभाव
 
और दिल्ली,
 
हमारे प्यार को नहीं खा सकते
 
जब तक मैं हू¡
 
हू¡ण्ण्ण्हू¡ण्ण्ण्हू¡ण्ण्ण्हू¡
 
चील की तरह आकाश में पहु¡ची
 
और बगुले की तरह हौले-हौले उतरी स्त्राी के ऊपर यह हुंकार
 
 
बिल्ली का नवजात बच्चा
 
जैसे अपने नंगे, गुलाबी गोश्त से सा¡स लेता है
 
वैसे ही पत्नी
 
रोमछिद्रों से इसे ग्रहण करती है
 
`नाक, कान और आ¡ख
 
ये कितनी पुरानी चीजें हैं जीवन के मुकाबले´–वह कहती है
 
और खुल जाती है
 
`सफल पति का प्यार´
 
तारें भरे आसमान में मस्ती से टहलते हुए वह
 
अपने आपसे कहती है
 
`सचमुच इस कालातीत अनुभव के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं, मित्राो´
 
4
 
पूरब में पौ फट रही है और
 
दिलों में दो-दो नयी, हरी पत्तिया¡ सशंक उठ खड़ी हुई हैं
 
पुरुष सूरज के लाल गोले को जा¡घों पर रखता है
 
और उसमें से एक चौकोर टुकड़ा काटकर
 
पत्नी को देता है
 
ण्ण्ण्चखो, अब यह हमारा है
 
यह सब कुछ हमारा है
 
स्त्राी का क्षण-क्षण आकार बदलता मांस
 
पति की देह में नए सिरे से जड़ें ढू¡ढ़ता है
 
 
तरबूज के गूदे से लथपथ दो नंगे बदन
 
गली के ऊपर मु¡डेर पर आते हैं
 
उजली हवा में थरथराते हैं
 
भयभीत जनसाèाारण की पुतलियों में सरसराते हैं
 
और एक-दूसरे को ह¡सी देते हुए कहते हैं
 
अब यह सभी कुछ हमारा है
 
 
 
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|रचनाकार=आर. चेतनक्रांति
 
|संग्रह=शोकनाच / आर. चेतनक्रांति
 
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सीलमपुर की लड़किया¡
 
 
सीलमपुर की लड़किया¡ `विटी´ हो गइ±
 
 
लेकिन इससे पहले वे बूढ़ी हुई थीं
 
जन्म से लेकर पन्द्रह साल की उम्र तक
 
उन्होंने सारा परिश्रम बूढ़ा होने के लिए किया,
 
पन्द्रह साला बुढ़ापा
 
जिसके सामने साठ साला बुढ़ापे की वासना
 
विनम्र होकर झुक जाती थी
 
और जुग-जुग जियो का जाप करने लगती थी
 
 
यह डॉक्टर मनमोहन सिंह और एमण् टीण्वीण् के उदय से पहले की बात है।
 
 
तब इन लड़कियों के लिए न देश-देश था, न काल-काल
 
ये दोनों
 
दो कूल्हे थे
 
दो गाल
 
और दो छातिया¡
 
 
बदन और वक्त की हर हरकत यहा¡ आकर
 
मांस के एक लोथड़े में बदल जाती थी
 
और बन्दर के बच्चे की तरह
 
एक तरप़+ लटक जाती थी
 
 
यह तब की बात है जब हौजख़्ाास से दिलशाद गार्डन जानेवाली
 
बस का कंटक्टर
 
सीलमपुर में आकर रेजगारी गिनने लगता था
 
 
फिर वक्त ने करवट बदली
 
सुिष्मता सेन मिस यूनीवर्स बनीं
 
और ऐश्वर्या राय मिस वल्र्ड
 
और अंजलि कपूर जो पेशे से वकील थीं
 
किसी पत्रिाका में अपने अर्द्धनग्न चित्रा छपने को दे आयीं
 
और सीलमपुर, शाहदरे की बेटियों के
 
गालों, कूल्हों और छातियों पर लटके मांस के लोथड़े
 
सप्राण हो उठे
 
वे कबूतरों की तरह फड़फड़ाने लगे
 
 
पन्द्रह साला इन लड़कियों की हज़ार साला पोपली आत्माए¡
 
अनजाने कम्पनों, अनजानी आवाज़ों और अनजानी तस्वीरों से भर उठीं
 
और मेरी ये बेडौल पीठवाली बहनें
 
बुजुर्ग वासना की विनम्रता से
 
घर की दीवारों से
 
और गलियों-चौबारों से
 
एक साथ तटस्थ हो गइ±
 
 
जहा¡ उनसे मुस्कुराने की उम्मीद थी
 
वहा¡ वे स्तब्èा होने लगीं,
 
जहा¡ उनसे मेहनत की उम्मीद थी
 
वहा¡ वे यातना कमाने लगीं
 
जहा¡ उनसे बोलने की उम्मीद थी
 
वहा¡ वे सिर्फ अकुलाने लगीं
 
उनके मन के भीतर दरअसल एक कुतुबमीनार निर्माणाèाीन थी
 
उनके और उनके माहौल के बीच
 
एक समतल मैदान निकल रहा था
 
जहा¡ चौबीसों घंटे खट्खट् हुआ करती थी।
 
यह उन दिनों की बात है जब अनिवासी भारतीयों ने
 
अपनी गोरी प्रेमिकाओं के ऊपर
 
हिन्दुस्तानी दुलहिनों को तरजीह देना शुरू किया था
 
और बड़े-बड़े नौकरशाहों और नेताओं की बेटियों ने
 
अंग्रेजी पत्राकारों को चुपके से बताया था कि
 
एक दिन वे किसी न किसी अनिवासी के साथ उड़ जाए¡गी
 
क्योंकि कैरियर के लिए यह जरूरी था
 
कैरियर जो आजादी था
 
 
उन्हीं दिनों यह हुआ
 
कि सीलमपुर के जो लड़के
 
प्रिया सिनेमा पर खड़े युद्ध की प्रतीक्षा कर रहे थे
 
वहा¡ की सौन्दर्यातीत उदासीनता से बिना लड़े ही पस्त हो गए
 
चौराहों पर लगी मूर्तियों की तरह
 
समय उन्हें भीतर से चाट गया
 
और वे वापसी की बसों में चढ़ लिए
 
 
उनके चेहरे खू¡खार तेज से तप रहे थे
 
वे साकार चाकू थे,
 
वे साकार शिश्न थे
 
सीलमपुर उन्हें जज्ब नहीं कर पाएगा
 
वे सोचते आ रहे थे
 
उन्हें उन मीनारों के बारे में पता नहीं था
 
जो इèार
 
लड़कियों की टा¡गों में तराश दी गइ± थीं
 
और उस मैदान के बारे में
 
जो उन लड़कियों और उनके समय के बीच
 
जाने कहा¡ से निकल आया था
 
इसलिए जब उनका पा¡व उस जमीन पर पड़ा
 
जिसे उनका स्पर्श पाते ही èासक जाना चाहिए था
 
वे ठगे से रह गए
 
 
और लड़किया¡ ह¡स रही थीं
 
वे जाने कहा¡ की बस का इन्तजार कर रही थीं
 
और पता नहीं लगने दे रही थीं कि वे इन्तजार कर रही हैं।
 
 
 
 
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हिन्दू देश में यौन-क्रान्ति
 
 
मदो± ने मान लिया था
 
कि उन्हें औरतें बा¡ट दी गइ±
 
और औरतों ने
 
कि उन्हें मर्द
 
इसके बाद विकास होना था
 
इसलिए
 
प्रेम और काम, और क्रोèा और लालसा और स्पद्धाZ,
 
और हासिल करके दीवार पर टा¡ग देने के पवित्रा इरादे के पालने में
 
बैठकर सब झूलने लगे
 
परिवारों में, परिवारों की शाखाओं में
 
कुलों और कुटुम्बों में–जातियों-प्रजातियों में
 
विकास होने लगा
 
जंगलों-पहाड़ों को
 
म्याऊ¡ और दहाड़ों को
 
रौंदते हुए क्षितिज-पार जाने लगा
 
इतिहास के कूबड़ में
 
ढेरों-ढेर गोश्त जमा होने लगा
 
पत्थर की बोसीदा किताब से उठकर डायनासोर चलने लगा
 
 
कि यौवन ने मारी लात देश के कूबड़ पर और कहा–
 
रुकें, अब आगे का कुछ सफर हमें दे दें
 
 
पहले स्त्राी उठी
 
जो सुन्दर चीजों के अजायबघर में सबसे बड़ी सुन्दरता थी
 
और कहा, कि पेडू में ब¡èाा हुआ यह नाड़ा कहता है
 
कि कीमतों का टैग आप कहीं और टा¡ग लें महोदय
 
इस अकड़ी काली, गोल गा¡ठ को अब मैं खोल रही हू¡
 
 
सुन्दरता ने असहमति के प्रचार-पत्रा पर
 
सोने की मुहर जैसा सुडौल अ¡गूठा छापा और नाम लिखा–अतृप्ति
 
कूबड़ थे जिनमें अकूत èान भरा था
 
कुए¡ थे जिनमें लालसा की तली कहीं न दिखती थी
 
पर सुन्दरता का दावा न था कि वह इस असमतलता को दूर करेगी
 
इरादों की ऋजुरैखिक यात्राा में वह थोड़ी अलग थी
 
उसने एक नई èारती की भराई शुरू की
 
जो सितारे की तरह दिखती थी
 
चा¡द की तरह
 
जिसकी मिट्टी में गुरुत्व नहीं था
 
जिसके ऊपर, नीचे, दाए¡, बाए¡ आसमान था
 
तो भी घर-घर में एक इच्छा जवान होती थी
 
कि बेशक अमेरिका के बाद ही
 
पर एक दिन हम भी वह
 

10:41, 22 जुलाई 2008 का अवतरण

वे तुम्हें मज़बूर करेंगे

कि तुम्हारा भी एक रूप हो निश्चित

कि तुम्हारा भी हो एक दावा

कि हो तुम्हारा भी एक वादा


कि तुम्हारा भी एक स्टैण्ड हो

कि तुम्हारी भी हो कोई `से´


वे तुम्हें मज़बूर करेंगे

कि रुको

और, कि या तो हाँ कहो या ना

कि चुप मत रहो

कि कुछ भी बोलो–अगर झूठ है तो वही सही

वे तुम्हें मज़बूर करेंगे

कभी गालियों से

कभी प्यार से

कभी गुस्से से

कभी मार से

कभी ठंडी उदासीनता से तुम्हें तुम्हारे कोने में अकेला छोड़

दीवार पीछे खड़े हो इन्तज़ार करेंगे

वे तुम्हें अपने धैर्य से मज़बूर करेंगे


वे तुम्हें मज़बूर करेंगे

कभी कहेंगे कि तुम फ़ालतू हो,

कि ऐसा है तो तुम्हें मर जाना चाहिए

वे तुम्हें अपने ठोस फैसलों से मज़बूर करेंगे

वे तुम्हारे सामने एक शीशा रख देंगे

और कहेंगे कि इससे डरो जो तुम्हें इसमें दिख रहा है


वे तुम्हें मज़बूर करेंगे अपनी कल्पना से

और कल्पना की प्लानिंग से

वे कहेंगे कि तुम ईश्वर हो

बल्कि उससे भी ज्यादा ताकतवर

आओ और हम पर राज करो


वे तुम्हें मज़बूर करेंगे अपने समर्पण से।