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12:36, 23 सितम्बर 2018 के समय का अवतरण
मेरा ज्यादातर साहस तो तोड़ दिया असफलता ने
थोड़ा बहुत बचा था जो वह सुविधाओं ने बांट लिया।
काश, अभी कुछ और तोड़ना जीवन का संघर्ष मुझे
मुझ में कुछ दिन और अहम का ताजापन जीवित रहता
मैं न सीखता अभी शिष्टता और सभ्यता की भाषा
जैसा मेरे मन में आता केवल वैसा ही कहता।
इतना दुनियादार न था मैं, यह कैसे हो गया भला
हर चुनाव में सुख-दुख के मैंने केवल सुख छांट लिया।
पांवों के नीचे ज़मीन आते ही पंख पिघल जाते
गद्य सीख लेती जब वाणी, गीत भूलने लगते हैं
वैसे ही उपलब्धि निरर्थक कर देती हर सपने को
जैसे भीगे हुए कोयले जलते नहीं, सुलगते हैं।
हर अभाव के साथ सृजन की संभावना विदा लेती
आखिर मैंने नाखूनों के साथ अंगूठा काट लिया।
अपने मन की बात मान ली, अंतर का स्वर नहीं सुना
यह कैसे हो गया कि मैंने अस्त्र फेंक कर कवच चुना
जैसे-जैसे मैं सामान गया भरता अपने घर में
भीतर का खालीपन होता गया निरन्तर कई गुना।
आत्मघात का यह भी एक तरीक़ा होता है शायद
हीरा चीज़ सजावट की है, मैंने उसको चाट लिया।