भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"नहीं जाती कभी उस दिल की वीरानी नहीं जाती / प्रमिल चन्द्र सरीन 'अंजान'" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रमिल चन्द्र सरीन 'अंजान' |अनुवा...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
 
पंक्ति 7: पंक्ति 7:
 
  {{KKCatGhazal}}
 
  {{KKCatGhazal}}
 
<poem>
 
<poem>
रोज़ हम आह आह करते हैं
+
नहीं जाती कभी उस दिल की वीरानी नहीं जाती
दम महब्बत का फिर भी भरते हैं
+
कि जिससे क़द्र तेरे ग़म की पहचानी नहीं जाती
  
आप क्यों खून करते हैं दिलका
+
गिरां जानी बशर की ज़िन्दगी के साथ जाती है
हम तो खुद दिल को खून करते हैं
+
किसी की मौत से पहले गिरां जानी नहीं जाती
  
शब गुज़रती है आहोज़ारी में
+
मेरी बरबदियों पर जो हमेशा मुस्कुराते थे
अश्क़बारी में दिन गुज़रते हैं
+
मेरे मरने पे अब उनकी परेशानी नहीं जाती
 +
 
 +
कोई ग़म ही के नग़मे तो सुनाता रहता है हर दम
 +
मगर अफ़सोस मेरी तंग दामानी नहीं जाती
 +
 
 +
किसी बेमहर से इसको तवक़्क़ो है महब्बत की
 +
नहीं जाती दिले-नादां की नादानी नहीं जाती
 +
 
 +
कभी तुम याद आते हो कभी सदमे रुलाते हैं
 +
हमारी आंख से अश्क़ों की तुगयानी नहीं जाती
 +
 
 +
लहू से हमने ऐ अंजान सींचा गुलशने दिल को
 +
मगर इस पर भी इसकी हैफ़ वीरानी नहीं जाती।
  
एक गुलरुख की आरज़ू में हम
 
अपने दामन में ख़ार भरते हैं।
 
 
</poem>
 
</poem>

19:45, 26 सितम्बर 2018 के समय का अवतरण

नहीं जाती कभी उस दिल की वीरानी नहीं जाती
कि जिससे क़द्र तेरे ग़म की पहचानी नहीं जाती

गिरां जानी बशर की ज़िन्दगी के साथ जाती है
किसी की मौत से पहले गिरां जानी नहीं जाती

मेरी बरबदियों पर जो हमेशा मुस्कुराते थे
मेरे मरने पे अब उनकी परेशानी नहीं जाती

कोई ग़म ही के नग़मे तो सुनाता रहता है हर दम
मगर अफ़सोस मेरी तंग दामानी नहीं जाती

किसी बेमहर से इसको तवक़्क़ो है महब्बत की
नहीं जाती दिले-नादां की नादानी नहीं जाती

कभी तुम याद आते हो कभी सदमे रुलाते हैं
हमारी आंख से अश्क़ों की तुगयानी नहीं जाती

लहू से हमने ऐ अंजान सींचा गुलशने दिल को
मगर इस पर भी इसकी हैफ़ वीरानी नहीं जाती।