भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"लम्हे कुछ ऐसे ज़ीस्त में आ कर चले गये / प्रमिल चन्द्र सरीन 'अंजान'" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रमिल चन्द्र सरीन 'अंजान' |अनुवा...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
19:47, 26 सितम्बर 2018 के समय का अवतरण
लम्हे कुछ ऐसे ज़ीस्त में आकर चले गये
मुझको लहू के अश्क़ रुलाकर चले गये
आये वो मेरी ज़ीस्त में आकर चले गये
इक आग मेरे दिल में लगाकर चले गये
दिल का क़रार जा चुका जाता रहा सुकूँ
आंखों से मेरी नींद उड़ाकर चले गये
इक मेरे घर को छोड़ के बरसे वो हर तरफ
बादल खुशी के अर्श पे आ कर चले गये
बस याद रह गई है मगर वो नहीं रहे
इक दर्द मेरे दिल में बसा कर चले गये।