भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"सभी के सामने सज्दा हमें करना नहीं आता / अजय अज्ञात" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अजय अज्ञात |अनुवादक= |संग्रह=जज़्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
09:21, 30 सितम्बर 2018 के समय का अवतरण
सभी के सामने सज्दा हमें करना नहीं आता
जरा भी झूठ का करना हमें धंधा नहीं आता
नहीं ऐसा कि बेटी का कोई रिश्ता नहीं आता
मगर मैं चाहता जैसा हूँ कुछ वैसा नहीं आता
बहुत नादान हैं वो लोग ऐसा सोचते हैं जो
कि घर में रहने वालों पर कोई ख़तरा नहीं आता
मुझे ख़ारों पे चलने से नहीं तकलीफ़ कोई भी
मगर नाजुक गुलों पर दो क़दम चलना नहीं आता
‘अजय अज्ञात’ उस को तो कभी मंज़िल नहीं मिलती
समय के साथ जिस को भी यहाँ चलना नहीं आता