भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"हो के यूँ पत्थर जो हम उनके हवाले जाएँगे / जंगवीर सिंंह 'राकेश'" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जंगवीर सिंंह 'राकेश' |अनुवादक= |स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
17:33, 3 अक्टूबर 2018 का अवतरण
हो के यूँ पत्थर जो हम उनके हवाले जाएँगे
यानि क्या अब पत्थरों से दिल निकाले जाएँगे
इश्क़ की आँधी चली तो आग ज़िस्मों में लगी
अब कहाँ सासों के ये तूफ़ाँ संभाले जाएँगे
ज़र्रा - ज़र्रा मैं यूँ कटता हूँ तो बहता हूँ कभी
एक - दिन ये रिश्ते-नाते सब बहा ले जाएँगे
लहरों में अफवाह है सागर अब तबाह हो जाएगा
मैं समझता हूँ सफ़ीने अब निकाले जाएँगे
इस क़दर ये इश्क़ ये चाहत ये लम्हे चुभते हैं
अश्क आँखों के न अब हमसे संभाले जाएँगे
दर्द था, गम था, लहू था इश्क़ की आँखों में तब
प्यार के पंछी न फिर से दिल में पाले जाएँगे।