"तुलना / अशोक कुमार शुक्ला" के अवतरणों में अंतर
| पंक्ति 6: | पंक्ति 6: | ||
| }} | }} | ||
| <poem> | <poem> | ||
| − | उस दिन  | + | याद है..? | 
| − | + | मुझे नकारते हुए | |
| − | चाँद से की थी   | + | उस दिन तुमने  | 
| − | तो सकपका गया था मैं   | + | स्वयं की तुलना   | 
| − | तुम्हारे अभिमान पर   | + | चाँद से की थी | 
| + | तो   | ||
| + | सकपका गया था मैं. | ||
| + | तुम्हारे अभिमान पर..!  | ||
| + | इन भौतिक आँखों से  | ||
| मुझे नहीं दिख सका था   | मुझे नहीं दिख सका था   | ||
| − | तुम्हारा  | + | तुम्हारा आंतरिक विस्तार..!  | 
| − | + | परंतु अब सोचता हूं- | |
| − | सचमुच चाँद जैसी ही हो तुम   | + | सचमुच चाँद जैसी ही तो हो तुम..! | 
| − | वही चमक   | + | वही चमक..!  | 
| − | वही शीतलता   | + | वही शीतलता..!  | 
| − | वही धवलता   | + | वही धवलता..!  | 
| − | और वही बदलता स्वरूप्   | + | और प्रतिदिन  | 
| − | आज खुश होकर चाँदनी बिखेरना   | + | वही बदलता स्वरूप् .. | 
| − | और कल बादलों के पीछे छिपकर   | + | आज खुश होकर चाँदनी बिखेरना,  | 
| + | और कल ... | ||
| + | बादलों के पीछे छिपकर   | ||
| अठखेलियां करना   | अठखेलियां करना   | ||
| बादल न भी हों   | बादल न भी हों   | ||
| तो भी बडा सहज है तुम्हारे लिये   | तो भी बडा सहज है तुम्हारे लिये   | ||
| अपने स्वरूप को बदल लेना   | अपने स्वरूप को बदल लेना   | ||
| − | क्योंकि चेहरा  | + | क्योंकि प्रतिदिन  | 
| − | + | बदल कर  | |
| − | जिसे मैं कभी नहीं पा  | + | नया चेहरा लगा लेने का   | 
| − | + | ख़ास हुनर है तुममें | |
| − | दहकता हुआ गोल सूरज  | + | जिसे मैं कभी नहीं पा सका..! | 
| + | हाँ....सचमुच...!  | ||
| + | तुम चाँद ही हो...!  | ||
| + | अपने हर स्वरूप में | ||
| + | बस सूरज से थोड़ी सी चमक लेकर | ||
| + | अपनी शीतलता का  | ||
| + | ढिंढोरा पीटने वाला चाँद...!  | ||
| + | और मैं ...? | ||
| + | सूरज हूँ सूरज...! | ||
| + | तुम्हारी यातनाओं से | ||
| + | दहकता हुआ   | ||
| + | हर दिन नया चेहरा | ||
| + | न बदल सकने की | ||
| + | विशेष योग्यता से दूर | ||
| + | एक गोल सूरज....!! | ||
| </poem>{{KKCatKavita}} | </poem>{{KKCatKavita}} | ||
15:52, 10 अक्टूबर 2018 के समय का अवतरण
याद है..?
मुझे नकारते हुए
उस दिन तुमने 
स्वयं की तुलना 
चाँद से की थी
तो 
सकपका गया था मैं.
तुम्हारे अभिमान पर..! 
इन भौतिक आँखों से 
मुझे नहीं दिख सका था 
तुम्हारा आंतरिक विस्तार..! 
परंतु अब सोचता हूं-
सचमुच चाँद जैसी ही तो हो तुम..!
वही चमक..! 
वही शीतलता..! 
वही धवलता..! 
और प्रतिदिन 
वही बदलता स्वरूप् ..
आज खुश होकर चाँदनी बिखेरना, 
और कल ...
बादलों के पीछे छिपकर 
अठखेलियां करना 
बादल न भी हों 
तो भी बडा सहज है तुम्हारे लिये 
अपने स्वरूप को बदल लेना 
क्योंकि प्रतिदिन 
बदल कर 
नया चेहरा लगा लेने का 
ख़ास हुनर है तुममें
जिसे मैं कभी नहीं पा सका..!
हाँ....सचमुच...! 
तुम चाँद ही हो...! 
अपने हर स्वरूप में
बस सूरज से थोड़ी सी चमक लेकर
अपनी शीतलता का 
ढिंढोरा पीटने वाला चाँद...! 
और मैं ...?
सूरज हूँ सूरज...!
तुम्हारी यातनाओं से
दहकता हुआ 
हर दिन नया चेहरा
न बदल सकने की
विशेष योग्यता से दूर
एक गोल सूरज....!!
 
	
	

