भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"अड़सठ का होने पर / सवाईसिंह शेखावत" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Kumar mukul (चर्चा | योगदान) ('अड़सठ वर्ष का होने पर सोचता हूँ अब तक ग़ैर की ज़मीन...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
Kumar mukul (चर्चा | योगदान) |
||
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
+ | |||
+ | {{KKGlobal}} | ||
+ | {{KKRachna | ||
+ | |रचनाकार=सवाईसिंह शेखावत | ||
+ | |संग्रह= | ||
+ | }} | ||
+ | {{KKCatK | ||
+ | avita}} | ||
+ | <poem> | ||
+ | |||
अड़सठ वर्ष का होने पर सोचता हूँ | अड़सठ वर्ष का होने पर सोचता हूँ | ||
अब तक ग़ैर की ज़मीन पर ही जिया | अब तक ग़ैर की ज़मीन पर ही जिया | ||
पंक्ति 6: | पंक्ति 16: | ||
अक्सर डींग भरी और दैन्य भरी | अक्सर डींग भरी और दैन्य भरी | ||
भुला बैठा कि एक दिन मरना भी है | भुला बैठा कि एक दिन मरना भी है | ||
− | + | | |
लेकिन कल से फ़र्क दिखेगा साफ़ | लेकिन कल से फ़र्क दिखेगा साफ़ | ||
अपनी रोज़मर्रा जिंदगी जीते हुए अब | अपनी रोज़मर्रा जिंदगी जीते हुए अब | ||
पंक्ति 15: | पंक्ति 25: | ||
अपराजेय आत्मा के लिए दुआ करूँगा | अपराजेय आत्मा के लिए दुआ करूँगा | ||
अपनी धरा, व्योम और दिक् में मरूँगा। | अपनी धरा, व्योम और दिक् में मरूँगा। | ||
+ | |||
(ताद्यूश रूजे़विच की कविता से अनुप्रेरित) | (ताद्यूश रूजे़विच की कविता से अनुप्रेरित) | ||
+ | |||
+ | </poem> |
11:12, 17 अक्टूबर 2018 के समय का अवतरण
{{KKCatK avita}}
अड़सठ वर्ष का होने पर सोचता हूँ
अब तक ग़ैर की ज़मीन पर ही जिया
एक आधी-अधूरी और उधारी जिंदगी
समय को कोसते हुए कविताएँ लिखीं
ग़म की और छूँछी खुशी की भी
अक्सर डींग भरी और दैन्य भरी
भुला बैठा कि एक दिन मरना भी है
लेकिन कल से फ़र्क दिखेगा साफ़
अपनी रोज़मर्रा जिंदगी जीते हुए अब
हर पल बेहतर होने की कोशिश करूँगा
धीरजपूर्वक जानूँगा घनी चाहत का राज
वृक्षों से सीखूँगा उम्र में बढ़ने की कला
ताकि हो सके दुनियाँ फिर से हरी-भरी
अपराजेय आत्मा के लिए दुआ करूँगा
अपनी धरा, व्योम और दिक् में मरूँगा।
(ताद्यूश रूजे़विच की कविता से अनुप्रेरित)