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"नए उफ़क खोलने के लिए आमीन! (गुलज़ार) / आलोक श्रीवास्तव-१" के अवतरणों में अंतर

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अल्फ़ाज़ का चुनाव और आहंग उसे कुछ विरासत में मिला है, कुछ उसकी अपनी लाक है. अपनी उम्र से बड़ी बात करता है आलोक-
 
अल्फ़ाज़ का चुनाव और आहंग उसे कुछ विरासत में मिला है, कुछ उसकी अपनी लाक है. अपनी उम्र से बड़ी बात करता है आलोक-
  
'''ये जिस्म क्या है कोई पैरहन उधार का है,
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ये जिस्म क्या है कोई पैरहन उधार का है,
यहीं संभाल के पहनना यहीं उतार चले.'''
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यहीं संभाल के पहनना यहीं उतार चले.
  
 
ग़ज़ल के अंदाज़ में ये शेर कहना वाक़ई बड़े सिफ़त का बात है, इसमें एक अंदाज़ भी है और नग़्मगी भी-
 
ग़ज़ल के अंदाज़ में ये शेर कहना वाक़ई बड़े सिफ़त का बात है, इसमें एक अंदाज़ भी है और नग़्मगी भी-
  
'''साला पांसा हरदम उल्टा पड़ता है,
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साला पांसा हरदम उल्टा पड़ता है,
आख़िर कितना चलूं संभल कर बम भोले.'''
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आख़िर कितना चलूं संभल कर बम भोले.
  
'''घर से दूर न भेज मुझे रोटी लाने,
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घर से दूर न भेज मुझे रोटी लाने,
सात गगन हैं सात समंदर बम भोले.'''
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सात गगन हैं सात समंदर बम भोले.
  
 
सिर्फ़ ग़ज़ल में ही नहीं, आलोक ने शायरी की दूसरी फ़ॉर्म्स में भी तब्अ-आज़माई की है. जैसे ग़ज़ल में एक ख़ास मिज़ाज की ज़रूरत होती है, उसी तरह दोहे में एक ख़ास तबीयत का होना बहुत ज़रूरी है-
 
सिर्फ़ ग़ज़ल में ही नहीं, आलोक ने शायरी की दूसरी फ़ॉर्म्स में भी तब्अ-आज़माई की है. जैसे ग़ज़ल में एक ख़ास मिज़ाज की ज़रूरत होती है, उसी तरह दोहे में एक ख़ास तबीयत का होना बहुत ज़रूरी है-
  
'''आंखों में लग जाएं तो, नाहक़ निकले ख़ून,
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आंखों में लग जाएं तो, नाहक़ निकले ख़ून,
बेहतर है छोटे रखें, रिश्तों के नाखून.'''
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बेहतर है छोटे रखें, रिश्तों के नाखून.
  
 
ये तआरुफ़ लिखते हुए मैं वाक़ई किसी तरह की सीनियरिटी से काम नहीं ले रहा हूं. मैं सच कहता हूं कि आलोक ने कई जगह हैरान किया है मुझे. उसकी सीधी-सादी बातें सुन कर मुझे नहीं लगता था कि इस ठहरी हुई सतह के नीचे इतनी गहरी हलचल है. उसकी नज़्में इस बात की गवाह हैं-
 
ये तआरुफ़ लिखते हुए मैं वाक़ई किसी तरह की सीनियरिटी से काम नहीं ले रहा हूं. मैं सच कहता हूं कि आलोक ने कई जगह हैरान किया है मुझे. उसकी सीधी-सादी बातें सुन कर मुझे नहीं लगता था कि इस ठहरी हुई सतह के नीचे इतनी गहरी हलचल है. उसकी नज़्में इस बात की गवाह हैं-
  
'''मुहब्बतों की दुकां नहीं है
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मुहब्बतों की दुकां नहीं है
 
वतन नहीं है, मकां नहीं है
 
वतन नहीं है, मकां नहीं है
 
क़दम का मीलों निशां नहीं है
 
क़दम का मीलों निशां नहीं है
मगर बता ये कहां नहीं है'''
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मगर बता ये कहां नहीं है.
  
 
आलोक एक रौशन उफ़क पर खड़ा है, नए उफ़क़ खोलने के लिए, आमीन!
 
आलोक एक रौशन उफ़क पर खड़ा है, नए उफ़क़ खोलने के लिए, आमीन!
  
 
'''-गुलज़ार'''
 
'''-गुलज़ार'''

09:07, 27 जुलाई 2008 का अवतरण

आलोक एक रौशन-ख़याल शख़्स है जिसके अंदर शायरी हर वक़्त जगमगाती रहती है. उसकी एनर्जी और इश्तियाक़ देख कर अक्सर हैरत होती है. वो एक अच्छे शेर और शायर के गिर्द यूं घूमता है जैसे जलते बल्ब के गिर्द पतंगे घूमते हैं, सर फोड़ते हैं, न जल पाते हैं, न फ़रार होते हैं. उसकी लगन देख कर बेसाख़्ता दुआएं देने को जी चाहता है. अल्फ़ाज़ का चुनाव और आहंग उसे कुछ विरासत में मिला है, कुछ उसकी अपनी लाक है. अपनी उम्र से बड़ी बात करता है आलोक-

ये जिस्म क्या है कोई पैरहन उधार का है, यहीं संभाल के पहनना यहीं उतार चले.

ग़ज़ल के अंदाज़ में ये शेर कहना वाक़ई बड़े सिफ़त का बात है, इसमें एक अंदाज़ भी है और नग़्मगी भी-

साला पांसा हरदम उल्टा पड़ता है, आख़िर कितना चलूं संभल कर बम भोले.

घर से दूर न भेज मुझे रोटी लाने, सात गगन हैं सात समंदर बम भोले.

सिर्फ़ ग़ज़ल में ही नहीं, आलोक ने शायरी की दूसरी फ़ॉर्म्स में भी तब्अ-आज़माई की है. जैसे ग़ज़ल में एक ख़ास मिज़ाज की ज़रूरत होती है, उसी तरह दोहे में एक ख़ास तबीयत का होना बहुत ज़रूरी है-

आंखों में लग जाएं तो, नाहक़ निकले ख़ून, बेहतर है छोटे रखें, रिश्तों के नाखून.

ये तआरुफ़ लिखते हुए मैं वाक़ई किसी तरह की सीनियरिटी से काम नहीं ले रहा हूं. मैं सच कहता हूं कि आलोक ने कई जगह हैरान किया है मुझे. उसकी सीधी-सादी बातें सुन कर मुझे नहीं लगता था कि इस ठहरी हुई सतह के नीचे इतनी गहरी हलचल है. उसकी नज़्में इस बात की गवाह हैं-

मुहब्बतों की दुकां नहीं है वतन नहीं है, मकां नहीं है क़दम का मीलों निशां नहीं है मगर बता ये कहां नहीं है.

आलोक एक रौशन उफ़क पर खड़ा है, नए उफ़क़ खोलने के लिए, आमीन!

-गुलज़ार