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वे अगले पचास बरस तक मेरे सपनों में आते रहे
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अनसुने विलाप हमारा पीछा करते रहे
वे मरे नहीं थे जैसा कि लोग समझते थे
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अब लुप्त थे उनके चेहरे
अलबत्ता वे अब भी अपनी कविताएँ लिख रहे थे
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लम्बी कतारें
यह सब मैंने सपने में देखा
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फैले हुए हाथ अर्जियों के
फिर मैं नीन्द से जागा और कुछ समझ नहीं पाया
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वे पराजित ईश्वर के हाथ थे
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याद मत रखो
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क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर
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से बनती है यह देह
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समय के तलघर में
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उन जलजलों में
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वह मानुस के जीवित बचे रहने का इतिहास था
  
अब क्या बताऊँ वे क्या लिखते रहे थे, क्या छूट गया पीछे
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इन्हीं के घर जल गए थे चार दिन पहले
एक बुजुर्ग कवि का ऋण जैसे कि सारी कायनात का ऋण
+
वे जल चुके की राख से उठे
तो शायद मुझे ही अब उन अधूरी कविताओं को पूरा करना होगा
+
कतार में खड़े होकर वे जो जीने का हक़ माँग रहे थे
मुझे चुरा लेनी होंगी अग्रज कवि की भेदभरी पंक्तियाँ
+
किसी दैवीय कृपा की तरह
जैसे कि आप उठा लेते हैं पंक्तियाँ
+
चाँद से, आकाश से, या दरख्तों से
+
और वे कुछ नहीं कहते
+
शायद मुझे ही ढूँढ़नी होंगी तमाम शोरगुल के बीच
+
उनकी ख़ामोशियाँ
+
और तमाम चुप्पियों के बीच
+
उनकी कोई अनसुनी चीख़?
+
वे तो चले उन रास्तों पर
+
जहाँ सन्देह थे केवल सन्देह और सवाल
+
और आश्वासन कोई नहीं
+
और वे जानते थे कि सच कहने से ज़्यादा ज़रूरी है
+
सच कहने की ज़रूरत का एहसास?
+
  
मैं नींद से हड़बडा कर जागूँगा
+
यह ज़मीन किसकी है?
इस तरह तीस बरस बाद रात दो बजे
+
मैं पूछता हूँ यह ज़मीन किसकी है?
मैं एक गहरी निद्रा से जागूँगा
+
गुर्राती है केबिन के भीतर से
मैं चारपाई, बिस्तर, कोठरी, कुर्सियों, बरतन-भाण्डों,
+
एक रोबदार आवाज़
बाड़ों, बरामदों, मान-अपमान, सुख-दुख, स्वार्थ, तारीखों
+
और वे गिड़गिड़ाहटें
और मंसूबों और व्याकरण से बाहर निकलूँगा
+
सभ्यता के तहख़ानों से निकल कर आती हुईं
रात दो बजे गझिन अन्धकार में
+
 
मैं अपने अग्रज कवि के रास्तों पर टटोलते हुए कुछ क़दम बढ़ाऊँगा
+
जिनका सबकुछ लुट गया
लेकिन फिर घबरा कर जल्दी से अपने अहाते में लौट आऊँगा
+
उन्हें याद नहीं
भारी-भारी साँसों के साथ
+
कि यह ज़मीन किसकी है
इस तरह
+
याद है तो सिर्फ़
इस तरह याद करता हूँ मैं आधी सदी पहले गुज़रे
+
तार पर सूखते कपड़े
एक दिवंगत कवि को
+
कुछ बर्तन, भात, नमक का स्वाद
उनकी कुछ अधूरी रह गई कविताओं को
+
बच्चों की किलकारी
 +
एक नींद
 +
एक असमाप्त गाथा
 +
 
 +
आसान नहीं बताना जिसको
 +
वही तो सब में छिपा रहता है
 +
ज़मीन जिसकी भी हो।
 
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20:04, 29 अक्टूबर 2018 के समय का अवतरण

अनसुने विलाप हमारा पीछा करते रहे
अब लुप्त थे उनके चेहरे
लम्बी कतारें
फैले हुए हाथ अर्जियों के
वे पराजित ईश्वर के हाथ थे
याद मत रखो
क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर
से बनती है यह देह
समय के तलघर में
उन जलजलों में
वह मानुस के जीवित बचे रहने का इतिहास था

इन्हीं के घर जल गए थे चार दिन पहले
वे जल चुके की राख से उठे
कतार में खड़े होकर वे जो जीने का हक़ माँग रहे थे
किसी दैवीय कृपा की तरह

यह ज़मीन किसकी है?
मैं पूछता हूँ यह ज़मीन किसकी है?
गुर्राती है केबिन के भीतर से
एक रोबदार आवाज़
और वे गिड़गिड़ाहटें
सभ्यता के तहख़ानों से निकल कर आती हुईं

जिनका सबकुछ लुट गया
उन्हें याद नहीं
कि यह ज़मीन किसकी है
याद है तो सिर्फ़
तार पर सूखते कपड़े
कुछ बर्तन, भात, नमक का स्वाद
बच्चों की किलकारी
एक नींद
एक असमाप्त गाथा

आसान नहीं बताना जिसको
वही तो सब में छिपा रहता है
ज़मीन जिसकी भी हो।