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नारी-धर्म अनेक हैं, कहौं कहाँ लगि सोय।
करहु सुबुद्धि विचार ते, तजहु जु अनुचित होय॥
हानि लाभ निज सोचि कै, काजहि होहु प्रवृत्त।
सुख पायहु तिहँ लोक में, यश बाढ़ै नित नित॥
ऐसी नहीं हम खेलनहार बिना रस-रीति करें बरजोरी।
चाहै तजौ तजि मान कहौ फिरि जाहिं घरे वृषभानु-किशोरी॥
चूक भई हम से तो दया करि नेकु लखो सखियान की ओरी।
ठाढ़ी अहै मन-मारि सबै बिन तोहिं बनै नहिं खेलत होरी॥