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विषम प्रभंजन के प्रकोप से, बखरँगे जब केश कलाप।
जयोत्स्नातल के प्रखर ताप से, मन में जब होगा सन्ताप।
मधुर अरुणिमा-रहित बनेंगे, शुष्क कपोल आप ही आप।
जब धरणी की ओर देखकर, रह जाऊँगी मैं चुपचाप॥
तब क्या बनमाली आकर, दुख-नद से मुझे उबारेंगे।
अपने कोमल हाथों से मृदु, अलकावली सुधारेंगे॥
मुरली की मृदु तान छोड़कर, शान्ति सुधा बरसावेंगे।
शष्क कण्ठ से कण्ठ मिलाकर, कोमल-ध्वनि से गावेंगे॥
भ्रम है मुझे ललित लतिका का, समझ न जाऊँ मैं बनमाल।
कृष्ण समझकर बड़े प्रेम से, चूम न लूँ मैं कहीं तमाल॥