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"कितने अटल युगों से सुनती आती हूँ यह बात / रामेश्वरीदेवी मिश्र ‘चकोरी’" के अवतरणों में अंतर

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कुछ कहो, कहाँ से आये हो, मतवाली व्यापकता लेकर?
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कितने अटल युगों से सुनती आती हूँ यह बात।
मरकत के प्याले में भर दी, यह किसकी मादकता लेकर?
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दूर-दूर है अभी दूर है मेरा स्वर्ण प्रभात॥
शैशव के सुन्दर आँगन में, तुम चुपके से आगये कहाँ?
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अधिकारों की माँग, दासता का है भीषण पाप।
भोले-भाले चंचल मन में, लज्जा-रस बरसा गये कहाँ?
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घात और प्रतिघात पतन के कहलाते अभिशाप॥
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अभी नहीं सूखे हैं मेरे उर के तीखे घाव।
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जिसकी कसक जगाती रहती है विरोध के भाव॥
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मानवते! कुछ ठहर, न उसका, छिपी हुई वह आग।
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आज शहीदों के शव पर गाने दे व्यथित विहाग॥
  
ले गये चुरा किस हेतु, कहो वह जीवन शान्त तपस्वी का!
 
निष्कपट, अलौकिक, निर्विकार, शुचि, सुन्दर, धीर मनस्वी का।
 
उस छोटे से नन्दनवन में जिसमें न पुष्प थे, कलियाँ थीं;
 
थे भाव नहीं, आसक्ति न थी, केवल प्रमोद रँगरलियाँ थीं।
 
 
संकुचित कली की पंखुरियाँ छू चुपके-से विकसा दीं क्यों?
 
सौरभ की सोई-सी अलकें आसक्त कहो उसका दीं क्यों?
 
उस शान्त स्निग्ध नीरवता में प्रलयंकर झंझावत मचा;
 
यह कैसा कायाकल्प किया-यह कैसा माया-जाल रचा।
 
 
लज्जा का अंजन लगा दिया, उन चपल हठीली आँखों में।
 
ले गये लूट स्वातंत्र्य-सौम्य हे हठी लुठेरे लाखों में॥
 
नन्हंे मन में किस भाँति अचानक आज प्रणय को पहचाना।
 
अभ्यन्तर में क्यों सुनती हूँ पीड़ा का व्यथा-सिक्त गाना॥
 
 
उर-अन्तर किसके मिलने को अज्ञात भावनाएँ भरकर।
 
उन्मत सिन्धु-सा उबल पड़ा अपना लेने किसको बढ़कर॥
 
उस सरल हृदय में यह कैसा अभिलाषाओं का द्वन्द्व हुआ।
 
उत्थान हुआ या पतन हुआ, दुख हुआ, या कि आनन्द हुआ॥
 
 
अँग-अँग मूक सम्भाषण की यह कैसी जटिल पहेली है।
 
बतलाओ तुम्हीं, तुम्हारी ही उलझाई अखिल पहेली है॥
 
  
 
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12:12, 26 दिसम्बर 2018 के समय का अवतरण

कितने अटल युगों से सुनती आती हूँ यह बात।
दूर-दूर है अभी दूर है मेरा स्वर्ण प्रभात॥
अधिकारों की माँग, दासता का है भीषण पाप।
घात और प्रतिघात पतन के कहलाते अभिशाप॥
अभी नहीं सूखे हैं मेरे उर के तीखे घाव।
जिसकी कसक जगाती रहती है विरोध के भाव॥
मानवते! कुछ ठहर, न उसका, छिपी हुई वह आग।
आज शहीदों के शव पर गाने दे व्यथित विहाग॥