भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"आशा के भग्न भवन में / विष्णुकुमारी श्रीवास्तव ‘मंजु’" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विष्णुकुमारी श्रीवास्तव ‘मंजु’...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

18:14, 2 जनवरी 2019 के समय का अवतरण

आशा के भग्न भवन में, प्राणों का दीप जलाये।
उत्सुक हो स्वागत-पथ पर, बैठी थी ध्यान लगाये॥
उठती तरंग-माला में, शरदिन्दु-किरण फँसती थी।
हिलती, मिलती, इठलाती, पगली सरिता हँसती थी॥

थे नील गगन में तारे, मुक्ता का तार पिरोते।
मेरी सूनी कुटिया में, आँखों से झरते सोते॥
है स्नेह-सिन्धु उफनाता, जर्जर है तरणी मेरी।
क्या कभी लगेगी तट पर, जब छाई रात अँधेरी॥
प्रियतम! क्या भूल सकूँगी, सूनेपन में तुम आये।
सुरभित पराग को लेकर, कलियों के दल बिखराये॥