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Kavita Kosh से
हम क्यों लड़ते हैं इतना
बच्चों -सा
जबकि बचपना
छेड़ती हूँ उसे
कि जाए बतिआए बतियाए अपनी लालपरी से
और झल्लाता-सा
चीख़ता है वह-- कपार...
फिर पूछती हूँ मैं
फिर बोलता है वह--
और तुम्हारे जो इतने चंपू हैं और
तो ... तो उसी के पास क्यों नहीं चले जाते
अरे!
और मेरा सिर सूंघता
कहता है-- ऐसी ही तो ख़ुशबू थी उसके बालों की भी
... हा हा हा...