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शिकवा / इक़बाल

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टिप्पणी: शिकवा {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=मोहम्मद इक़बाल की शायद सबसे चर्चित रचना है जिसमें उन्होंने मुस्लिमों के स्वर्णयुग को याद करते हुए ईश्वर से मुसलमानों की हालत के बारे में शिकायत की है ।}}{{KKCatNazm}}
<poem>
''टिप्पणी: शिकवा इक़बाल की शायद सबसे चर्चित रचना है जिसमें उन्होंने इस्लाम के स्वर्णयुग को याद करते हुए ईश्वर से मुसलमानों की तात्कालिक हालत के बारे में शिकायत की है। यह 1909 में प्रकाशित हुई थी। ''
 
क्यूँ ज़ियांकार बनूँ, सूद फ़रामोश रहूँ
फ़िक्र-ए-फ़र्दा<ref>कल की चिन्ता</ref> न करूँ, महव<ref>खोया रहना</ref>-ए-ग़म-ए-दोश रहूँ
नाले बुलबुल की सुनूँ और हमा-तन-गोश<ref>चुपचाप सुनना </ref> रहूँ
हमनवा<ref> साथी</ref> मैं भी कोई गुल हूँ के ख़ामोश रहूँ।
 
जुरत-आमोज़<ref>साहस सिखाने वाला</ref> मेरी ताब-ए-सुख़न<ref>बातों का तेज</ref> है मुझको
शिकवा अल्लाह से ख़ाकम बदहन है मुझको
 
है बजा शेवा-ए-तसलीम में, मशहूर हैं हम
क़िस्सा-ए-दर्द सुनाते हैं कि मजबूर हैं हम
साज-ए-ख़ामोश हैं, फ़रियाद से मामूर हैं हम
नाला आता है अगर लब पे, तो माज़ूर हैं हम
 
ऐ ख़ुदा, शिकवा-ए-अरबाब-ए-वफ़ा भी सुन ले
ख़ूगर-ए-हम्द <ref>प्रशंसा करने के आदी</ref> से थोड़ा सा ग़िला भी सुन ले।
 
थी तो मौजूद अज़ल <ref>आदि</ref> से ही तेरी ज़ात-ए-क़दीम <ref> पुराने प्राणी </ref>
फूल था ज़ेब-ए-चमन, पर न परेशान थी शमीम<ref> सुगंध</ref>।
शर्त-ए-इंसाफ़ है ऐ साहिब-ए-अल्ताफ़-ए-अमीम <ref>सार्वभौमिक, स्र्वोपरि. यहाँ पर मतलब ईश्वर या अल्लाह से है। </ref>।
बू-ए-गुल फैलती किस तरह जो होती न नसीम <ref>पवन</ref>।
 
हमको जमहीयत-ए-ख़ातिर ये परेशानी थी
वरना उम्मत तेरी महबूब की दीवानी थी।
 
हमसे पहले था अजब तेरे जहाँ का मंज़र।
कहीं मस्जूद<ref>पूज्य (जिसका सजदा किया जाय)</ref> थे पत्थर, कहीं माबूद<ref>पूज्य</ref> शजर <ref>पेड़</ref>।
ख़ूगर-ए-पैकर-ए-महसूस<ref>महसूस कर सकने वाली आकृति को (पूजने की) आदी </ref> थी इंसा की नज़र।
मानता फ़िर अनदेखे खुदा को कोई क्यूंकर?
 
तुझको मालूम है लेता था कोई नाम तेरा।
कुव्वत-ए-बाज़ू-ए-मुस्लिम ने किया काम तेरा।
 
बस रहे थे यहीं सल्जूक<ref>उत्तरपश्चिमी ईरान और पूर्वी तुर्की में दसवीं सदी का एक साम्राज्य, शासक तुर्क मूल के थे</ref> भी, तूरानी<ref>मध्य-एशियाई </ref> भी।
अहल-ए-चीं चीन में, ईरान में सासानी<ref>अरबों की ईरान पर फ़तह के ठीक पहले के शासक, अग्निपूजक पारसी, अमुस्लिम</ref> भी।
इसी मामूरे में आबाद थे यूनानी भी।
इसी दुनिया में यहूदी भी थे, नसरानी<ref>ईसाई</ref> भी।
 
पर तेरे नाम पर तलवार उठाई किसने?
बात जो बिगड़ी हुई थी वो बनाई किसने?
 
थे हमीं एक तेरे मअर का आराओं में।
खुश्कियों में कभी लड़ते, कभी दरियाओं में।
दी अज़ानें कभी योरोप के कलीशाओं<ref>चर्च, गिरिजाघर</ref> में।
कभी अफ़्रीक़ा के तपते हुए सेहराओं<ref>रेगिस्तान</ref> में।
 
शान आँखों में न जँचती थी जहाँदारों की।
कलेमा<ref> ये कहना कि 'अल्लाह एक है और मुहम्मद उसका संदेशवाहक था', इस्लाम का सबसे ज्यादा प्रयुक्त वंदनवाक्य</ref> पढ़ते थे हम छाँव में तलवारों की।
हम जो जीते थे, तो जंगों की मुसीबत के लिए
और मरते थे तेरे नाम की अज़मत<ref>महानता</ref> के लिए।
थी न कुछ तेग़ ज़नी अपनी हुकूमत के लिए
सर बकफ़<ref> हथेली पर</ref> फिरते थे क्या दहर<ref>दुनिया</ref> में दौलत के लिए?
 
कौम अपनी जो ज़रोमाल-ए-जहाँ पर मरती
बुत फरोशी के एवज़ बुत-शिकनी क्यों करती?
 
टल न सकते थे अगर जंग में अड़ जाते थे।
पाँव शेरों के भी मैदां से उखड़ जाते थे।
तुझ से सरकश हुआ कोई तो बिगड़ जाते थे।
तेग़<ref>तलवार</ref> क्या चीज़ है, हम तोप से लड़ जाते थे।
 
नक़्श तौहीद<ref>त'वाहिद, एकत्व. यानि ये कहना कि अल्लाह एक है और उसके तस्वीर या मूर्तियां नहीं हैं, अरबी गिनती में वाहिद का अर्थ 'एक' होता है। </ref> का हर दिल पे बिठाया हमने।
तेरे ख़ंज़र लिए पैग़ाम सुनाया हमने।
 
तू ही कह दे के, उखाड़ा दर-ए-ख़ैबर<ref> ख़ैबर मदीना के पास एक स्थान है, जहाँ यहूदी रहा करते थे। अन्य यहूदियों के साथ सांठगाँठ करने के शक में मुस्लिम सेना को पैग़म्बर मुहम्मद ने इनपर आक्रमण का हुकम दिया। युद्ध में यहूदी हार गए और इस लड़ाई को उस समय और आज भी एक प्रतीकात्मक विजय के रूप में देखा जाता है। उत्तर-पश्चिमी पाकिस्तान में पेशावर के पास का दर्रा भी इसी नाम से है, जिससे होकर कई विदेशी आक्रांता भारत आए; सिकंदर, बाबर और नादिर शाह इनमें से कुछ उल्लेखनीय नाम हैं। </ref> किसने?
शहर कैसर<ref>सीज़र का अरबी नाम, सीज़र रोम के शासक की उपाधि होती थी - जूलयस सीज़र, ऑगस्टस सीज़र आदि </ref> का जो था, उसको किया सर किसने?
तोड़े मख़्लूक<ref>बनाया हुआ, कृत्रिम। इस्लाम के मुताबिक ईश्वर की वंदना उचित है और ईश्वर के रूपक (तस्वीर, मूर्ति ) अर्थात बनाई गए चीज़ों की वंदना अनुचित। इन ईश्वर द्वारा बनाई गई चीजों में सूर्य, चांद, पेड़, कोई व्यक्ति इत्यादि आते हैं जिसकी वंदना स्वीकार्य नहीं है। </ref> ख़ुदाबन्दों के पैकर<ref>आकृति, स्वरूप</ref> किसने?
काट कर रख दिये कुफ़्फ़ार<ref>काफ़िर का बहुवचन</ref> के लश्कर<ref>सेना</ref> किसने?
 
किसने ठंडा किया आतिशकदा<ref>अग्निगृह, इस्लाम के पूर्व ईरान के लोग आग और देवी-देवताओं की पूजा करते थे</ref>-ए-ईरां को?
किसने फिर ज़िन्दा किया तज़कर-ए-यज़दां को?
 
कौन सी क़ौम फ़क़त<ref> सिर्फ़</ref> तेरी तलबगार हुई?
और तेरे लिए जहमतकश-ए-पैकार हुई?
किसकी शमशीर<ref>तलवार</ref> जहाँगीर, जहाँदार हुई?
किसकी तक़दीर से दुनिया तेरी बेदार हुई?
 
किसकी हैबत <ref>डर</ref> से सनम<ref>मूर्तियाँ</ref> सहमे हुए रहते थे?
मुँह के बल गिरके 'हु अल्लाह-ओ-अहद' कहते थे।
 
आ गया ऐन लड़ाई में अगर वक़्त-ए-नमाज़
क़िब्ला रू हो<ref>मक्के के रुख होकर</ref> के ज़मीं-बोस<ref>जमीन चूमना, अर्थ सजदे के लिए झुकने से है। </ref> हुई क़ौम-ए-हिजाज़ <ref>मुस्लिम क़ौम। हिजाज़ वो अरबी प्रांत है जिसमें मक्का और मदीना हैं। </ref>।
एक ही सफ़ में खड़े हो गए महमूद -ओ- अयाज़ <ref> अयाज़ नाम का सुल्तान महमूद ग़ज़नी का एक ग़ुलाम था जिसकी बन्दगी से ख़ुश होकर सुल्तान ने उसे शाह का दर्जा दिया था और लाहौर को सन् १०२१ में बड़ी मुश्किलों से जीतने के बाद, उसे वहाँ का राजा बनाया था। </ref>
न कोई बन्दा रहा, और न कोई बन्दा नवाज़।
 
बन्दा ओ साहिब ओ मोहताज़ ओ ग़नी <ref> धनाढ्य, संपन्न </ref>एक हुए
तेरी सरकार में पहुँचे तो सभी एक हुए।
 
महफिल-ए-कौन-ओ मकामे सहर-ओ-शाम फ़िरे
मय-ए-तौहीद को लेकर सिफ़त-ए-जाम फिरे।
कोह-में दश्त <ref> रेत, रेगिस्तान </ref> में लेकर तेरा पैग़ाम फिरे
और मालूम है तुझको कभी नाकाम फिरे?
 
दश्त-तो-दश्त हैं, दरिया भी न छोड़े हमने।
दहर-ए-ज़ुल्मात में दौड़ा दिये घोड़े हमने।
क्यूं ज़ियाकार बनूं, सूद फ़रामोश रहूँफ़िक्रसिफ़हा-ए-फर्दा न करूँदहर<ref>दुनिया का चेहरा</ref> से बातिल<ref>असत्य, महवशून्य। ये मानना के दुनिया को चलाने वाला कोई नहीं है। अनिस्लमी। </ref> को मिटाया हमने। दौर-ए-ग़म-ए-दोश रहूँइंसा को ग़ुलामी से छुड़ाया हमने। नाले बुल-बुल की सुनूँ और हमअतंगोश रहूँतेरे काबे को ज़बीनों <ref>भौंह</ref> पे बसाया हमनेहमनवां मैं भी कोई गुल हूँ के ख़ामोश रहूँ ।तेरे क़ुरआन को सीनों से लगाया हमने।
जुरत-आमोज़ मेरी ताब-ए-सुख़न फिर भी हमसे ये ग़िला है मुझकोशिकवा अल्लाह से ख़ाकमहै बजा शेवा तसलीम में कि मशहूर हैं हमवफ़ादार नहीं?क़िस्सा-ए-दर्द सुनाते हैं कि मज़बूर हैं हमसाजें खामोश हैंवफ़ादार नहीं, फ़रियाद से मामूर हैं हमनाला आता है अगर लब पे तू भी तो माज़ूर हैं हमदिलदार नहीं।
ऐ खुदाउम्मतें और भी हैं, उनमें गुनहगार भी हैं। इजज़<ref>कमज़ोरी</ref> वाले भी हैं, शिकवामस्त-ए-अरबाबमय-ए-वफ़ा पिन्दार <ref>अभिमानी, शब्दार्थ - घमंड के नशे में मस्त</ref> भी सुन लेहैं। ख़ूगर-ए-हम्ज़ इनमें काहिल भी है, ग़ाफ़िल<ref>नादान </ref> भी हैं, हुशियार भी हैसैकड़ों हैं कि तेरे नाम से ड़ा सा ग़िला बेदार भी सुन ले ।है।
थी तो मौज़ूद अज़ल से ही रहमतें हैं तेरी जात-ए-कदीलअग़ियार<ref>दुश्मन</ref> के काशानों पर। फूल था ज़ेर-ए-चमन, पर न परेशान थीशर्त-ए-इंसाप बर्क गिरती है ऐ साहब-ए-अल्ताफ़-ए-हमीं ।बू-ए-गुल फैलती किस तरह जो होती नसीम ।तो बेचारे मुसलमानों पर।
वरना उम्मत तेरी महबूब की दीवानी थीबुत सनमख़ानों में कहते हैं मुसलमान गए। है खुशी उनको कि काबे के निगहबान गए। मंजिले-ए-दहर से ऊँटों के हदीख़्वान गए। अपनी बगलों में दबाए हुए क़ुरान गए।
हमसे पहले था अजब तेरे जहाँ का मंजरकहीं थे मस्जूद ते पत्थरज़िंदाज़न कुफ़्र है, कहीं माबूद शज़रएहसास तुझे है कि नहीं?कूगर-ए-पैकर-ए-महसूद थे इंसा अपनी तौहीद का कुछ पास<ref>बचाने की नज़रमानता फ़िर अनदेखे खुदा को कोई क्यूंकरतुझको मालूम चिंता </ref> तुझे है लेता था कोई नाम तेराकुव्वत-ए-बाज़ू-ए-मुस्लमु ने किया काम तेराकि नहीं?
बस रहे थे यहीं सल्जूक भीये शियाकत नहीं, तूरानी हैं उनके ख़ज़ाने मामूर। नहीं महफिल में जिन्हें बात भीकरने का शअउर। अहलकहर तो ये है कि काफिर को मिले रुद-ओ-खुसूर। और बेचारों मुसलमानों को फ़कत वादा-ए-चीन चीन में, ईरान में सासानी भीइसी मामूरे में आबाद थे यूनानी भीइसी दुनिया में यहूदी भी थी, नसरानी भीहूर।
पर तेरे नाम पर तलवार उठाई किसनेअब वो अल्ताफ़<ref>दया</ref> नहीं, हम पे इनायात<ref> मेहरबानी </ref> नहींबात जो बिगड़ी हुई थी बनाई किसने ये क्या है कि पहली सी मुदारात नहीं?
थे हमीं एक तेरे मा के आराओं क्यों मुसलमानों मेंहै दौलत-ए-दुनिया नायाब?खुश्कियों में लड़ते कभीतेरी कुदरत तो है वो, कभी दरियाओं मेंजिसकी न हद है न हिसाब। दी अज़ाने कभी यूरोप के कलीशाओं मेंतू जो चाहे तो उठे सीना-सहरा से हुबाब<ref>बुलबुला </ref>। कभी अफ़्रीक़ा के तपते हुए सेहराओं में ।रहरव-ए-दश्त सैली ज़ दहा मौज-ए सराब।
शान न जँचती थीबाम-ए-अगियार है, रुसवाई है, नादारी है। कलेमा पढ़ते थे हमछांव में तलवारों कीक्या तेरे नाम पे मरने का एवज़ ख़्वारी है?
हम जो जीते तो जंगों बनी अगियार की मुसीमत के अब चाहने वाली दुनिया। रह गई अपने लिएएक ख़याली दुनिया। और लड़ते थे तेरीहम तो रुख़सत हुए, औरों ने संभाली दुनिया। सर बकफ़ फिरते थे क्या दौलत के लिएफ़िर न कहना कि हुई तौहीद से खाली दुनिया।
हम तो जीते हैं कि दुनिया में तेरा नाम रहे।
कहीं मुमकिन है कि साक़ी न रहे, जाम रहे?
बुत फरोशी तेरी महफिल भी गई चाहनेवाले भी गए। शब की आहें भी गईं, जुगनूं के बुत-शिकनी क्यों करतीनाले भी गए। टल दिल तुझे दे भी गए, अपना सिला ले भी गए। आ के बैठे भी सकते थे अगर जंग में अड़ जाते थेतुझ से हर कश हुआ कोई तो बिगड़ जाते थेतेग क्या चीज है हम तोप से लड़ जाते थे और निकाले भी गए।
तू ही कह देआए उश्शाक़ <ref>आशिक़ का बहुवचन</ref>, उखाड़ा दरगए वादा-ए-ख़ैबर किसनेफ़रदा लेकर। शहर कैसर का जो था, उसको तोड़ा किसनेअब उन्हें ढूँढ चराग-ए-रुख़-ज़ेबा लेकर।
दर्द-ए-लैला भी वही, क़ैस <ref>लैला-मजनूं की कहानी में मजनूं का वास्तविक नाम क़ैस था। मजनूं का नाम उसे पाग़ल बनने के बाद मिला। अरबी भाषा में मजनून का शाब्दिक अर्थ पागल होता है। </ref> का पहलू भी वही।
नज्द <ref>मध्य अरब का रेगिस्तान </ref>के दश्त-ओ-जबल में रम-ए-आहू <ref>हिरण की चौकड़ी </ref> भी वही।
इश्क़ का दिल भी वही, हुस्न का जादू भी वही।
उम्मत-ए-अहमद-मुरसल भी वही, तू भी वही।
किसने ठंडा किया आतिशकदाफिर ये आजुर्दगी<ref>चिढ़ाना</ref>, ये ग़ैर-ए-ईरान को ।सबब क्या मानी?किसने फिर ज़िन्दा कियाकौन सी क़ौम फ़क़त तेरी तलबगार हुईकिसकी अपने शऽदाओं पर ये चश्म-ए-ग़ज़ब क्या मानी?
किसकी शमशीर जहाँगीरतुझकों छोड़ा कि रसूल-ए-अरबी <ref>अरब का पैग़म्बर, यानि मुहम्मद </ref> को छोड़ा?बुतगरी पेशा किया, बुतशिकनी<ref>मूर्तियों को तोड़ना</ref> को छोड़ा?इश्क को, इश्क़ की आशुफ़्तासरी <ref>रोमांच, पुलक</ref> को छोड़ा?रस्म-ए-सलमान-ओ-उवैश-ए-क़रनी<ref>क़रनी, सीरिया के उवैश जो इस्लाम के शुरुआती परिवर्तितों में थे। हज़रत अली के समर्थन में उन्होंने कर्बला की लड़ाई लड़ी और जिसमें वो शहीद हुए थे। </ref> को छोड़ा?
आग तकबीर <ref>ये स्वीकारना कि अल्लाह एक है और मुहम्मद उसका दूत था </ref> की सीनों में दबी रखते हैं
ज़िंदगी मिस्ल-ए-बिलाल-ए-हबसी रखते हैं।
किसकी हैमत से सनम सहमे हुए रहते थेइश्क़ की ख़ैर, वो पहली सी अदा भी न सहीमुँह के बल गिरके हु अल्लाहज्यादा पैमाई-ए-तस्लीम-ओ-अहद कहते थेरिज़ा भी न सही। मुज़्तरिब<ref>बेचैन</ref> दिल सिफ़त-ए-क़िबलानुमा भी न सहीऔर पाबंदी-ए-आईन<ref>विधान, नियम</ref>-ए-वफ़ा भी न सही।
आ गया ऐन लड़ाई अगर-वक़्त-ए-नमाज़एक ही खड़े हो गए कभी हमसे कभी ग़ैरों से शनासाई <ref>अपना, जुड़ा</ref> है। न कोई बन्दा रहाबात कहने की नहीं, न कोई बन्दा नवाज़तू भी तो हरजाई है।
तेरी सरकारा सर-ए-फ़ाराँ पे किया दीन को कामिल तूने। इक इशारे में पहुँचे तो सभी एक हुएहज़ारों के लिए दिल तूने। आतिश अंदोश किया इश्क़ का हासिल तूने। फ़ूँक दी गर्मी-ए-रुख्सार से महफ़िल तूने।
आज क्यूँ सीने हमारे शराराबाज़ नहीं?
हम वही सोख़्ता सामां हैं, तुझे याद नहीं?
तौहीद को लेकर सिफ़तवादी ए नज्द में वो शोर-ए-शाम फिरेसलासिल <ref>जंज़ीर </ref> न रहा। कोहक़ैस दीवाना-में ए-नज़्ज़ारा-ए-महमिल न रहा। और मालूम हौसले वो न रहे, हम न रहे, दिल न रहा। घर ये उजड़ा है तुझको कभी नाकाम फिरेकि तू रौनक-ए-महफ़िल न रहा।
दश्तऐ ख़ुश आं रूज़ के आइ व बसद नाज़ आई। बे हिजाबाने सू-तो-दश्त हैं, दोरमहफ़िल-ए-अंसा को ग़ुलामी के छुड़ाया हमनेतेरे काबों को जबीनों पे बसाया हमनेमा बाज़ आई।
बादाकश ग़ैर हैं, गुलशन में लब-ए-जू <ref>झरने के किनारे </ref> बैठे
सुनते हैं जाम बकफ़<ref>हथेली पर </ref>, नग़मा-ए-कू-कू बैठे।
दूर हंगामा-ए-गुल्ज़ार से यकसू <ref>एक तरफ़ </ref> बैठे
तेरे दीवाने भी है मुंतज़िर-ए-हू बैठे।
फिर भी हमसे घ़िला है कि वफ़ादार नहींअपने परवानों को फ़िर ज़ौक-ए-ख़ुदअफ़रोज़ी<ref>खुद को जलाने का मज़ा</ref> दे। हम वफ़ादार नहीं, तू भी तो दिलदार नहींबर्के दैरीना<ref>पुरानी बिज़ली</ref> को फ़रमान-ए-जिगर सोज़ी दे।
उम्मतें और भी है, उनमें गुनहगार भी क़ौम-ए-आवारा इनां ताब हैफिर सू-ए-हिजाज़। इनमें काहिल भी ले उड़ा बुलबुल-ए-बेपर को मदाके परवाज। मुज़्तरिब बाग़ के हर गुंचे में हैबू-ए-नियाज़। तू ज़रा छेड़ तो दे तश्ना मिज़राब-ए-साज।
नगमें बेताब हैं तारों से निकलने के लिए।
तूर मुज्तर हैं उसी आग में जलने के लिए।
बर्क गिरती है तो बेचारे मुसलमानों मुश्किलें उम्मत-ए-मरहूम<ref>हारे हुए लोगों की उम्मत, यहाँ परअर्थ - इस्लाम</ref> की आसां कर दे। मूर-ए-बेमायां को अंदोश-ए-सुलेमां कर दे। जिन्स-ए-नायाब-ए-मुहब्बत<ref>ऐसे दुर्लभ प्रेमियों (यहाँ पर अर्थ मुस्लमानों से है)</ref> को फ़िर अरज़ां<ref>सुलभ, सस्ता</ref> कर देहिन्द के दैर नशीनों<ref>पुराने देवियो की ख़िदमत करने वाले</ref> को मुसल्मां कर दे।
जू-ए-ख़ून मीचकद अज़ हसरते दैरीना मा।
मीतपद नाला ब-निश्तर कदा-ए-सीना मा। <ref> फ़ारसी में लिखी पंक्ति का अर्थ है - ख़ून की धार हमारी पुरानी हसरतों से निकलती है, और सीने के हत्यागार से हमारे चीखने की आवाज़ आती है। (अपूर्ण अनुवाद है। ) </ref>
बुत सनमख़ानों में कहते के मुसलमान गएबू-ए-गुल ले गई बेरूह-ए-चमन राज़-ए-चमन। क्या क़यामत है खुशी उनको कि काबे के निगहबान गएख़ुद फूल हैं ग़माज़-ए-चमन। एहसासा तुझे है कि नहींअहद-ए-गुल ख़त्म हुआ टूट गया साज़-ए-चमन। अपना तौहीद का कुछ फाज तुझे है कि नहींउड़ गए डालियों से जमजमा-ए-परवाज़-ए-चमन।
ये शियाकत नहीं के हैं उनके ख़ज़ानेएक बुलबुल है कि है महव-ए-तरन्नुम<ref>संगीत में खोया </ref> अबतक। नहीं महफिल इसके सीने में जिन्हें बात भी करवने हैं नग़मों का अउरतलातुम<ref>तूफ़ान</ref> अबतक।
क़ुमरियां साख़-ए-सनोबर<ref>पाईन, एक प्रकार का पेड़। </ref> से गुरेज़ां भी हुई।
पत्तिया फूल की झड़-झड़ की परीशां भी हुई।
वो पुरानी रविशें बाग़ की वीरां भी हुई।
डालियां पैरहन-ए-बर्ग <ref>पत्तियों का पहनावा</ref> से उरियां भी हुई।
बात ये क्या है कि पहली सी क़ैद ए मौसम से तबीयत रही आज़ाद उसकी। तेरी कुदरत तो है वो कि जिसकी न हद है नकाश गुलशन में समझता कोई फ़रियाद उसकी।
लुत्फ़ मरने में है बाक़ी, न मज़ा जीने में।
कुछ मज़ा है तो यही ख़ून-ए-जिगर पीने में।
कितने बेताब हैं जौहर मेरे आईने में ।
किस क़दर जल्वे तड़पते है मेरे सीने में।
इस गुलिस्तां में मगर देखने वाले ही नहीं।
दाग़ जो सीने में रखते हैं वो लाले ही नहीं।
चाक इस बुलबुल ए तन्हा की नवां से दिल हों
जागने वाले इसी बांग-ए-दरा से दिल हों।
यानि फ़िर ज़िन्दा ना अहद-ए-वफ़ा से दिल हों
फिर उसी बादा ए तेरी ना के प्यासे दिल हों।
अजमी ख़ुम है तो क्या, मय तो हिजाज़ी<ref> अरब का प्रांत जिसमें मक्का और मदीना हैं </ref> है मेरी।
नग़मा हिन्दी है तो क्या, लय तो हिजाज़ी है मेरी।
</poem>
(कविता में बहुत सी अशुद्धियाँ है। शब्दार्थों तथा शोधन में सहयोग का स्वागत है।)
{{KKMeaning}}
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