Changes

शिकवा / इक़बाल

18,216 bytes added, 08:05, 13 जनवरी 2019
टिप्पणी: शिकवा {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=मोहम्मद इक़बाल की शायद सबसे चर्चित रचना है जिसमें उन्होंने मुस्लिमों के स्वर्णयुग को याद करते हुए ईश्वर से मुसलमानों की हालत के बारे में शिकायत की है ।}}{{KKCatNazm}}
<poem>
''टिप्पणी: शिकवा इक़बाल की शायद सबसे चर्चित रचना है जिसमें उन्होंने इस्लाम के स्वर्णयुग को याद करते हुए ईश्वर से मुसलमानों की तात्कालिक हालत के बारे में शिकायत की है। यह 1909 में प्रकाशित हुई थी। ''
क्यूं ज़ियाकार बनूंक्यूँ ज़ियांकार बनूँ, सूद फ़रामोश रहूँफ़िक्र-ए-फर्दा फ़र्दा<ref>कल की चिन्ता</ref> न करूँ, महव<ref>खोया रहना</ref>-ए-ग़म-ए-दोश रहूँनाले बुलबुल की सुनूँ और हमअतंगोश हमा-तन-गोश<ref>चुपचाप सुनना </ref> रहूँहमनवां हमनवा<ref> साथी</ref> मैं भी कोई गुल हूँ के ख़ामोश रहूँ ।रहूँ।
जुरत-आमोज़ <ref>साहस सिखाने वाला</ref> मेरी ताब-ए-सुख़न <ref>बातों का तेज</ref> है मुझकोशिकवा अल्लाह से ख़ाकम-बर-दहन बदहन है मुझको
है बजा शेवा -ए-तसलीम में, मशहूर हैं हमक़िस्सा-ए-दर्द सुनाते हैं कि मज़बूर मजबूर हैं हमसाजें खामोश साज-ए-ख़ामोश हैं, फ़रियाद से मामूर हैं हम
नाला आता है अगर लब पे, तो माज़ूर हैं हम
खुदाख़ुदा, शिकवा-ए-अरबाब-ए-वफ़ा भी सुन लेख़ूगर-ए-हम्ज़ हम्द <ref>प्रशंसा करने के आदी</ref> से थोड़ा सा ग़िला भी सुन ले ।ले।
थी तो मौज़ूद मौजूद अज़ल <ref>आदि</ref> से ही तेरी जातज़ात-ए-कदीलक़दीम <ref> पुराने प्राणी </ref>फूल था ज़ेरज़ेब-ए-चमन, पर न परेशान थी शमीम<ref> सुगंध</ref>। शर्त-ए-इंसाफ़ है ऐ साहिब-ए-अल्ताफ़-ए-अमीं अमीम <ref>सार्वभौमिक, स्र्वोपरि. यहाँ पर मतलब ईश्वर या अल्लाह से है। </ref>।बू-ए-गुल फैलती किस तरह जो होती न नसीम <ref>पवन</ref>
हमको जमहीयत-ए-ख़ातिर ये परेशानी थी
वरना उम्मत तेरी महबूब की दीवानी थी ।थी।
हमसे पहले था अजब तेरे जहाँ का मंजरमंज़र। कहीं थे मस्जूद ते <ref>पूज्य (जिसका सजदा किया जाय)</ref> थे पत्थर, कहीं माबूद शज़र<ref>पूज्य</ref> शजर <ref>पेड़</ref>। खूगरख़ूगर-ए-पैकर-ए-महसूद थे महसूस<ref>महसूस कर सकने वाली आकृति को (पूजने की) आदी </ref> थी इंसा की नज़रनज़र। मानता फ़िर कोई अनदेखे खुदा को कोई क्यूंकर?
तुझको मालूम है लेता था कोई नाम तेरातेरा। कुव्वत-ए-बाज़ू-ए-मुस्लिम ने किया काम तेरातेरा।
बस रहे थे यहीं सल्जूक <ref>उत्तरपश्चिमी ईरान और पूर्वी तुर्की में दसवीं सदी का एक साम्राज्य, शासक तुर्क मूल के थे</ref> भी, तूरानी भी<ref>मध्य-एशियाई </ref> भी। अहल-ए-चीं चीन में, ईरान में सासानी भी<ref>अरबों की ईरान पर फ़तह के ठीक पहले के शासक, अग्निपूजक पारसी, अमुस्लिम</ref> भी। इसी मामूरे में आबाद थे यूनानी भीभी। इसी दुनिया में यहूदी भी थे, नसरानी भी<ref>ईसाई</ref> भी।
पर तेरे नाम पर तलवार उठाई किसने?बात जो बिगड़ी हुई थी वो बनाई किसने ?
थे हमीं एक तेरे मार मअर का आराओं मेंमें। खुश्कियों में कभी लड़ते, कभी दरियाओं मेंमें। दी अज़ानें कभी योरोप के कलीशाओं में<ref>चर्च, गिरिजाघर</ref> में। कभी अफ़्रीक़ा के तपते हुए सेहराओं में । शान आँखों में न जँचती थी जहाँदारों कीकलेमा पढ़ते थे हम छांव में तलवारों की ।<ref>रेगिस्तान</ref> में।
शान आँखों में न जँचती थी जहाँदारों की।
कलेमा<ref> ये कहना कि 'अल्लाह एक है और मुहम्मद उसका संदेशवाहक था', इस्लाम का सबसे ज्यादा प्रयुक्त वंदनवाक्य</ref> पढ़ते थे हम छाँव में तलवारों की।
हम जो जीते थे, तो जंगों की मुसीबत के लिए
और मरते थे तेरे नाम की अज़मत <ref>महानता</ref> के लिए ।लिए।
थी न कुछ तेग़ ज़नी अपनी हुकूमत के लिए
सर बकफ़ <ref> हथेली पर</ref> फिरते थे क्या दहर <ref>दुनिया</ref> में दौलत के लिए ?
कौम अपनी जो ज़रोमाल-ए-जहाँ पर मरती
बुत फरोशी के तेवर एवज़ बुत-शिकनी क्यों करती ? टल न सकते थे अगर जंग में अड़ जाते थे। पाँव शेरों के भी मैदां से उखड़ जाते थे। तुझ से सरकश हुआ कोई तो बिगड़ जाते थे। तेग़<ref>तलवार</ref> क्या चीज़ है, हम तोप से लड़ जाते थे।  नक़्श तौहीद<ref>त'वाहिद, एकत्व. यानि ये कहना कि अल्लाह एक है और उसके तस्वीर या मूर्तियां नहीं हैं, अरबी गिनती में वाहिद का अर्थ 'एक' होता है। </ref> का हर दिल पे बिठाया हमने। तेरे ख़ंज़र लिए पैग़ाम सुनाया हमने।  तू ही कह दे के, उखाड़ा दर-ए-ख़ैबर<ref> ख़ैबर मदीना के पास एक स्थान है, जहाँ यहूदी रहा करते थे। अन्य यहूदियों के साथ सांठगाँठ करने के शक में मुस्लिम सेना को पैग़म्बर मुहम्मद ने इनपर आक्रमण का हुकम दिया। युद्ध में यहूदी हार गए और इस लड़ाई को उस समय और आज भी एक प्रतीकात्मक विजय के रूप में देखा जाता है। उत्तर-पश्चिमी पाकिस्तान में पेशावर के पास का दर्रा भी इसी नाम से है, जिससे होकर कई विदेशी आक्रांता भारत आए; सिकंदर, बाबर और नादिर शाह इनमें से कुछ उल्लेखनीय नाम हैं। </ref> किसने?शहर कैसर<ref>सीज़र का अरबी नाम, सीज़र रोम के शासक की उपाधि होती थी - जूलयस सीज़र, ऑगस्टस सीज़र आदि </ref> का जो था, उसको किया सर किसने?तोड़े मख़्लूक<ref>बनाया हुआ, कृत्रिम। इस्लाम के मुताबिक ईश्वर की वंदना उचित है और ईश्वर के रूपक (तस्वीर, मूर्ति ) अर्थात बनाई गए चीज़ों की वंदना अनुचित। इन ईश्वर द्वारा बनाई गई चीजों में सूर्य, चांद, पेड़, कोई व्यक्ति इत्यादि आते हैं जिसकी वंदना स्वीकार्य नहीं है। </ref> ख़ुदाबन्दों के पैकर<ref>आकृति, स्वरूप</ref> किसने?काट कर रख दिये कुफ़्फ़ार<ref>काफ़िर का बहुवचन</ref> के लश्कर<ref>सेना</ref> किसने? किसने ठंडा किया आतिशकदा<ref>अग्निगृह, इस्लाम के पूर्व ईरान के लोग आग और देवी-देवताओं की पूजा करते थे</ref>-ए-ईरां को?किसने फिर ज़िन्दा किया तज़कर-ए-यज़दां को? कौन सी क़ौम फ़क़त<ref> सिर्फ़</ref> तेरी तलबगार हुई?और तेरे लिए जहमतकश-ए-पैकार हुई?किसकी शमशीर<ref>तलवार</ref> जहाँगीर, जहाँदार हुई?किसकी तक़दीर से दुनिया तेरी बेदार हुई? किसकी हैबत <ref>डर</ref> से सनम<ref>मूर्तियाँ</ref> सहमे हुए रहते थे?मुँह के बल गिरके 'हु अल्लाह-ओ-अहद' कहते थे।  आ गया ऐन लड़ाई में अगर वक़्त-ए-नमाज़क़िब्ला रू हो<ref>मक्के के रुख होकर</ref> के ज़मीं-बोस<ref>जमीन चूमना, अर्थ सजदे के लिए झुकने से है। </ref> हुई क़ौम-ए-हिजाज़ <ref>मुस्लिम क़ौम। हिजाज़ वो अरबी प्रांत है जिसमें मक्का और मदीना हैं। </ref>। एक ही सफ़ में खड़े हो गए महमूद -ओ- अयाज़ <ref> अयाज़ नाम का सुल्तान महमूद ग़ज़नी का एक ग़ुलाम था जिसकी बन्दगी से ख़ुश होकर सुल्तान ने उसे शाह का दर्जा दिया था और लाहौर को सन् १०२१ में बड़ी मुश्किलों से जीतने के बाद, उसे वहाँ का राजा बनाया था। </ref>न कोई बन्दा रहा, और न कोई बन्दा नवाज़।  बन्दा ओ साहिब ओ मोहताज़ ओ ग़नी <ref> धनाढ्य, संपन्न </ref>एक हुएतेरी सरकार में पहुँचे तो सभी एक हुए।  महफिल-ए-कौन-ओ मकामे सहर-ओ-शाम फ़िरेमय-ए-तौहीद को लेकर सिफ़त-ए-जाम फिरे। कोह-में दश्त <ref> रेत, रेगिस्तान </ref> में लेकर तेरा पैग़ाम फिरेऔर मालूम है तुझको कभी नाकाम फिरे? दश्त-तो-दश्त हैं, दरिया भी न छोड़े हमने। दहर-ए-ज़ुल्मात में दौड़ा दिये घोड़े हमने।  सिफ़हा-ए-दहर<ref>दुनिया का चेहरा</ref> से बातिल<ref>असत्य, शून्य। ये मानना के दुनिया को चलाने वाला कोई नहीं है। अनिस्लमी। </ref> को मिटाया हमने। दौर-ए-इंसा को ग़ुलामी से छुड़ाया हमने। तेरे काबे को ज़बीनों <ref>भौंह</ref> पे बसाया हमनेतेरे क़ुरआन को सीनों से लगाया हमने।  फिर भी हमसे ये ग़िला है कि वफ़ादार नहीं?हम वफ़ादार नहीं, तू भी तो दिलदार नहीं।  उम्मतें और भी हैं, उनमें गुनहगार भी हैं। इजज़<ref>कमज़ोरी</ref> वाले भी हैं, मस्त-ए-मय-ए-पिन्दार <ref>अभिमानी, शब्दार्थ - घमंड के नशे में मस्त</ref> भी हैं। इनमें काहिल भी है, ग़ाफ़िल<ref>नादान </ref> भी हैं, हुशियार भी हैसैकड़ों हैं कि तेरे नाम से बेदार भी है।  रहमतें हैं तेरी अग़ियार<ref>दुश्मन</ref> के काशानों पर। बर्क गिरती है तो बेचारे मुसलमानों पर।  बुत सनमख़ानों में कहते हैं मुसलमान गए। है खुशी उनको कि काबे के निगहबान गए। मंजिले-ए-दहर से ऊँटों के हदीख़्वान गए। अपनी बगलों में दबाए हुए क़ुरान गए।  ज़िंदाज़न कुफ़्र है, एहसास तुझे है कि नहीं?अपनी तौहीद का कुछ पास<ref>बचाने की चिंता </ref> तुझे है कि नहीं? ये शियाकत नहीं, हैं उनके ख़ज़ाने मामूर। नहीं महफिल में जिन्हें बात भी करने का शअउर। कहर तो ये है कि काफिर को मिले रुद-ओ-खुसूर। और बेचारों मुसलमानों को फ़कत वादा-ए-हूर।  अब वो अल्ताफ़<ref>दया</ref> नहीं, हम पे इनायात<ref> मेहरबानी </ref> नहींबात ये क्या है कि पहली सी मुदारात नहीं? क्यों मुसलमानों में है दौलत-ए-दुनिया नायाब?तेरी कुदरत तो है वो, जिसकी न हद है न हिसाब। तू जो चाहे तो उठे सीना-सहरा से हुबाब<ref>बुलबुला </ref>। रहरव-ए-दश्त सैली ज़ दहा मौज-ए सराब।  बाम-ए-अगियार है, रुसवाई है, नादारी है। क्या तेरे नाम पे मरने का एवज़ ख़्वारी है? बनी अगियार की अब चाहने वाली दुनिया। रह गई अपने लिए एक ख़याली दुनिया। हम तो रुख़सत हुए, औरों ने संभाली दुनिया। फ़िर न कहना कि हुई तौहीद से खाली दुनिया।  हम तो जीते हैं कि दुनिया में तेरा नाम रहे। कहीं मुमकिन है कि साक़ी न रहे, जाम रहे?
टल न सकते थे अगर जंग में अड़ जाते थेतेरी महफिल भी गई चाहनेवाले भी गए। पाँव शेरों शब की आहें भी गईं, जुगनूं के नाले भी मैदां से उखड़ जाते थे ।गए। तुझ से हर कश हुआ कोई तो बिगड़ जाते थेतेग क्या चीज हैदिल तुझे दे भी गए, हम तोप से लड़ जाते अपना सिला ले भी गए। आ के बैठे भी न थे और निकाले भी गए।
नक़्श तौहीद आए उश्शाक़ <ref>आशिक़ का हर दिल पे बिठाया हमने बहुवचन</ref>, गए वादा-ए-फ़रदा लेकर। तेरे ख़ंज़र लिए पैग़ाम सुनाया हमने ।अब उन्हें ढूँढ चराग-ए-रुख़-ज़ेबा लेकर।
तू ही कह दे केदर्द-ए-लैला भी वही, उखाड़ा दरक़ैस <ref>लैला-मजनूं की कहानी में मजनूं का वास्तविक नाम क़ैस था। मजनूं का नाम उसे पाग़ल बनने के बाद मिला। अरबी भाषा में मजनून का शाब्दिक अर्थ पागल होता है। </ref> का पहलू भी वही। नज्द <ref>मध्य अरब का रेगिस्तान </ref>के दश्त-ओ-जबल में रम-ए-ख़ैबर किसने?आहू <ref>हिरण की चौकड़ी </ref> भी वही। शहर कैसर इश्क़ का जो थादिल भी वही, उसको किया सर किसने?हुस्न का जादू भी वही। तोड़े मख़्लूक ख़ुदाबन्दों के पैकर किसने?काट कर रख दिये कुफ़्फ़ार के लश्कर किसने?उम्मत-ए-अहमद-मुरसल भी वही, तू भी वही।
किसने ठंडा किया आतिशकदाफिर ये आजुर्दगी<ref>चिढ़ाना</ref>, ये ग़ैर-ए-ईरां को सबब क्या मानी?किसने फिर ज़िन्दा किया दज़तराएअपने शऽदाओं पर ये चश्म-ए-यज़दां को ग़ज़ब क्या मानी?
कौन सी क़ौम फ़क़त तेरी तलबगार हुई ?और तेरे लिए जहमतकशतुझकों छोड़ा कि रसूल-ए- पैकार हुई अरबी <ref>अरब का पैग़म्बर, यानि मुहम्मद </ref> को छोड़ा?किसकी शमशीर जहाँगीरबुतगरी पेशा किया, जहाँदार हुई बुतशिकनी<ref>मूर्तियों को तोड़ना</ref> को छोड़ा?किसकी तक़दीर से दुनिया तेरी बेदार हुई इश्क को, इश्क़ की आशुफ़्तासरी <ref>रोमांच, पुलक</ref> को छोड़ा?रस्म-ए-सलमान-ओ-उवैश-ए-क़रनी<ref>क़रनी, सीरिया के उवैश जो इस्लाम के शुरुआती परिवर्तितों में थे। हज़रत अली के समर्थन में उन्होंने कर्बला की लड़ाई लड़ी और जिसमें वो शहीद हुए थे। </ref> को छोड़ा?
किसकी हैमत से सनम सहमे हुए रहते थेमुँह के बल गिरके 'हु आग तकबीर <ref>ये स्वीकारना कि अल्लाहएक है और मुहम्मद उसका दूत था </ref> की सीनों में दबी रखते हैंज़िंदगी मिस्ल-ए-बिलाल--अहद' कहते थे ।हबसी रखते हैं।
आ गया ऐन लड़ाई में अगर-वक़्तइश्क़ की ख़ैर, वो पहली सी अदा भी न सहीज्यादा पैमाई-ए-नमाज़तस्लीम-ओ-रिज़ा भी न सही। हिब्ला रूहों के ज़मीं बोश हुई क़ौममुज़्तरिब<ref>बेचैन</ref> दिल सिफ़त-ए-हिजाज़ ।क़िबलानुमा भी न सहीएक ही सम्त में खड़े हो गए महमूद और पाबंदी-- अयाज़न कोई बन्दा रहाआईन<ref>विधान, और नियम</ref>-ए-वफ़ा भी कोई बन्दा नवाज़ ।सही।
बन्दा ओ साहिब ओ मोहताज़ ओ ग़नी एक हुएकभी हमसे कभी ग़ैरों से शनासाई <ref>अपना, जुड़ा</ref> है। तेरी सरकार में पहुँचे बात कहने की नहीं, तू भी तो सभी एक हुए ।हरजाई है।
महफिलसर-ए-कौन-ए मकामे सहर-ओ-शाम फ़िरेफ़ाराँ पे किया दीन को कामिल तूने। महलइक इशारे में हज़ारों के लिए दिल तूने। आतिश अंदोश किया इश्क़ का हासिल तूने। फ़ूँक दी गर्मी-ए-तौहीद को लेकर सिफ़त-ए-जाम फिरे ।कोह-में दश्त में लेकर तेरा पैग़ाम फिरेऔर मालूम है तुझको कभी नाकाम फिरे ?रुख्सार से महफ़िल तूने।
दश्त-तो-दश्त आज क्यूँ सीने हमारे शराराबाज़ नहीं?हम वही सोख़्ता सामां हैं, दरिया भी न छोड़े हमनेदहर-ए-ज़ुल्मात में दौड़ा दिये घोड़े हमने ।तुझे याद नहीं?
सफ़ावादी ए नज्द में वो शोर-ए-दहर से क़ातिल को मिटाया हमने सलासिल <ref>जंज़ीर </ref> न रहा। दौरक़ैस दीवाना-ए-इंसा को ग़ुलामी से छुड़ाया हमने ।नज़्ज़ारा-ए-महमिल न रहा। तेरे काबों को जबीनों पे बसाया हमनेहौसले वो न रहे, हम न रहे, दिल न रहा। तेरे क़ुरान को सीनों से लगाया हमने ।घर ये उजड़ा है कि तू रौनक-ए-महफ़िल न रहा।
फिर भी हमसे ग़िला है कि वफ़ादार नहींऐ ख़ुश आं रूज़ के आइ व बसद नाज़ आई। हम वफ़ादार नहीं, तू भी तो दिलदार नहीं ।बे हिजाबाने सू-ए-महफ़िल-ए-मा बाज़ आई।
उम्मतें और भी बादाकश ग़ैर हैं, उनमें गुनहगार भी हैंगुलशन में लब-ए-जू <ref>झरने के किनारे </ref> बैठेहिज़ वाले भी सुनते हैंजाम बकफ़<ref>हथेली पर </ref>, मस्तनग़मा-ए-मयकू-कू बैठे। दूर हंगामा-ए-पिन्दार भी हैं ।गुल्ज़ार से यकसू <ref>एक तरफ़ </ref> बैठेइनमें काहिल भी है, ग़ाफ़िल भी हैं, हुशियार भी हैसैकड़ों हैं कि तेरे नाम से बेदार दीवाने भी है मुंतज़िर-ए-हू बैठे।
रहमतें हैं तेरे अगियार के काशानों परअपने परवानों को फ़िर ज़ौक-ए-ख़ुदअफ़रोज़ी<ref>खुद को जलाने का मज़ा</ref> दे। बर्क गिरती है तो बेचारे मुसलमानों पर ।बर्के दैरीना<ref>पुरानी बिज़ली</ref> को फ़रमान-ए-जिगर सोज़ी दे।
क़ौम-ए-आवारा इनां ताब है फिर सू-ए-हिजाज़।
ले उड़ा बुलबुल-ए-बेपर को मदाके परवाज।
मुज़्तरिब बाग़ के हर गुंचे में है बू-ए-नियाज़।
तू ज़रा छेड़ तो दे तश्ना मिज़राब-ए-साज।
बुत सनमख़ानों में कहते मुसलमान गएहै खुशी उनको कि काबे के निगहबान गए ।मंजिले-ए-दहर नगमें बेताब हैं तारों से ऊँटों निकलने के गुलीख़्वान गएलिए। अपनी बगलों तूर मुज्तर हैं उसी आग में दबाए हुए क़ुरान गए ।जलने के लिए।
मुश्किलें उम्मत-ए-मरहूम<ref>हारे हुए लोगों की उम्मत, यहाँ पर अर्थ - इस्लाम</ref> की आसां कर दे।
मूर-ए-बेमायां को अंदोश-ए-सुलेमां कर दे।
जिन्स-ए-नायाब-ए-मुहब्बत<ref>ऐसे दुर्लभ प्रेमियों (यहाँ पर अर्थ मुस्लमानों से है)</ref> को फ़िर अरज़ां<ref>सुलभ, सस्ता</ref> कर दे
हिन्द के दैर नशीनों<ref>पुराने देवियो की ख़िदमत करने वाले</ref> को मुसल्मां कर दे।
अंदरदन कुफ़्र है, एहसास तुझे है कि नहींजू-ए-ख़ून मीचकद अज़ हसरते दैरीना मा। अपना तौहीद मीतपद नाला ब-निश्तर कदा-ए-सीना मा। <ref> फ़ारसी में लिखी पंक्ति का कुछ फाज तुझे अर्थ है कि नहीं?- ख़ून की धार हमारी पुरानी हसरतों से निकलती है, और सीने के हत्यागार से हमारे चीखने की आवाज़ आती है। (अपूर्ण अनुवाद है। ) </ref>
ये शियाकत नहीं के बू-ए-गुल ले गई बेरूह-ए-चमन राज़-ए-चमन। क्या क़यामत है कि ख़ुद फूल हैं उनके ख़ज़ाने मामूरग़माज़-ए-चमन। अहद-ए-गुल ख़त्म हुआ टूट गया साज़-ए-चमन। नहीं महफिल में जिन्हें बात भी करने का शअउरउड़ गए डालियों से जमजमा-ए-परवाज़-ए-चमन।
कहर तो ये एक बुलबुल है कि काफिर को मिले सूदहै महव--खुसूरतरन्नुम<ref>संगीत में खोया </ref> अबतक। और बेचारों मुसलमानों को फ़कत इसके सीने में हैं नग़मों का तलातुम<ref>तूफ़ान</ref> अबतक।
अब वो अल्ताफ़ नहीं, हमपे बात ये क्या है कि पहली सी मुदारात नहींक्यों मुसलमानों में है दौलतक़ुमरियां साख़-ए-दुनिया नायाबसनोबर<ref>पाईन, एक प्रकार का पेड़। </ref> से गुरेज़ां भी हुई। पत्तिया फूल की झड़-झड़ की परीशां भी हुई। तेरी कुदरत तो है वो कि जिसकी न हद है न हिसाबपुरानी रविशें बाग़ की वीरां भी हुई। तू जो चाहे तो सीनाडालियां पैरहन-सहरा से हुबाबसह ए-दश्त बर्ग <ref>पत्तियों का पहनावा</ref> से उठे हुबाबउरियां भी हुई।
नादारी हैक़ैद ए मौसम से तबीयत रही आज़ाद उसकी। क्या तेरे नाम पे मरने के आवज़ भारी है ?काश गुलशन में समझता कोई फ़रियाद उसकी।
लुत्फ़ मरने में है बाक़ी, न मज़ा जीने में।
कुछ मज़ा है तो यही ख़ून-ए-जिगर पीने में।
कितने बेताब हैं जौहर मेरे आईने में ।
किस क़दर जल्वे तड़पते है मेरे सीने में।
इस गुलिस्तां में मगर देखने वाले ही नहीं।
दाग़ जो सीने में रखते हैं वो लाले ही नहीं।
चाक इस बुलबुल ए तन्हा की नवां से दिल हों
जागने वाले इसी बांग-ए-दरा से दिल हों।
यानि फ़िर ज़िन्दा ना अहद-ए-वफ़ा से दिल हों
फिर उसी बादा ए तेरी ना के प्यासे दिल हों।
अजमी ख़ुम है तो क्या, मय तो हिजाज़ी<ref> अरब का प्रांत जिसमें मक्का और मदीना हैं </ref> है मेरी।
नग़मा हिन्दी है तो क्या, लय तो हिजाज़ी है मेरी।
</poem>
(कविता में बहुत सी अशुद्धियाँ है। शब्दार्थों तथा शोधन में सहयोग का स्वागत है।)
{{KKMeaning}}
160
edits