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रुक गई बहती नदी / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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04:35, 21 जनवरी 2019
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|रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र
|संग्रह=नीम तले / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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काम सारे ख़त्म करके
रुक गई बहती नदी
ओढ़ कर
कुहरे की चादर
देर तक सोती रही
सूर्य बाबा
उठ सवेरे
हाथ-मुँह धो आ गये
जो दिखा उनको
उसी से
चाय माँगे जा रहे
धूप कमरे में घुसी तो
हड़बड़ाकर उठ गई
गर्म होते सूर्य बाबा ने
कहा कुछ धूप से
धूप तो सब जानती थी
गुदगुदा आई उसे
उठ गई
झटपट नहाकर
वो रसोई में घुसी
चाय पीकर
सूर्य बाबा ने कहा
जीती रहो
खाईयाँ
दो पीढ़ियों के बीच की
सीती रहो
मुस्कुरा चंचल नदी
सबको जगाने चल पड़ी
</poem>
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