"मैंने ईश्वर को मंदिर में / 'सज्जन' धर्मेन्द्र" के अवतरणों में अंतर
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+ | मैंने ईश्वर को मंदिर में | ||
+ | बिलख-बिलख रोते देखा है | ||
+ | पत्र, पुष्प, गंगाजल-पूरित | ||
+ | ताम्र-पात्र से स्नान कर रहे | ||
+ | धूप, दीप, नैवेद्य, दुग्ध सँग | ||
+ | चरणामृत का पान कर रहे | ||
+ | छोटे से काले पत्थर को | ||
+ | ईश्वर पर हँसते देखा है | ||
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+ | मंदिर के बाहर वट नीचे | ||
+ | गन्दा फटा वस्त्र फैलाकर | ||
+ | उस ईश्वर के एक अंश को | ||
+ | भूख-प्यास से व्याकुल होकर | ||
+ | लोगों की फेंकी जूठन भी | ||
+ | बिन-बिन कर खाते देखा है | ||
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+ | मन-मन्दिर में गूँज रही | ||
+ | हर निर्धन, निर्बल की चाहों को | ||
+ | पूरी कर देने की | ||
+ | उस ईश्वर की कोमल इच्छाओं को | ||
+ | फूलों, सिक्कों, नोटों, गहनों | ||
+ | से दबकर मरते देखा है | ||
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+ | स्वर्ग-नर्क की तस्वीरों में | ||
+ | पाप-पुण्य की ज़ंजीरों से | ||
+ | बुरी तरह से कैद हो गये | ||
+ | भोले ईश्वर के हाथों से | ||
+ | सर्व-धर्म के प्रेम-जलज को | ||
+ | कुम्हलाकर गिरते देखा है | ||
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+ | |||
+ | मन्दिर के ही एक अंधेरे | ||
+ | सीलन भरे किसी कोने में | ||
+ | नफरत, स्वार्थ और पापों के | ||
+ | भालों से छलनी सीने में- | ||
+ | से बहकर प्रभु के लोहू को | ||
+ | मिट्टी में मिलते देखा है | ||
+ | |||
+ | तड़प रहे ईश्वर की | ||
+ | चुपके-चुपके से फिर चिता जलाकर | ||
+ | और राख में धर्म, जाति की घृणा | ||
+ | स्वार्थ का ज़हर मिलाकर | ||
+ | सभी धर्मगुरुओं को फिर से | ||
+ | धर्म-ग्रन्थ लिखते देखा है | ||
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20:43, 21 जनवरी 2019 के समय का अवतरण
मैंने ईश्वर को मंदिर में
बिलख-बिलख रोते देखा है
पत्र, पुष्प, गंगाजल-पूरित
ताम्र-पात्र से स्नान कर रहे
धूप, दीप, नैवेद्य, दुग्ध सँग
चरणामृत का पान कर रहे
छोटे से काले पत्थर को
ईश्वर पर हँसते देखा है
मंदिर के बाहर वट नीचे
गन्दा फटा वस्त्र फैलाकर
उस ईश्वर के एक अंश को
भूख-प्यास से व्याकुल होकर
लोगों की फेंकी जूठन भी
बिन-बिन कर खाते देखा है
मन-मन्दिर में गूँज रही
हर निर्धन, निर्बल की चाहों को
पूरी कर देने की
उस ईश्वर की कोमल इच्छाओं को
फूलों, सिक्कों, नोटों, गहनों
से दबकर मरते देखा है
स्वर्ग-नर्क की तस्वीरों में
पाप-पुण्य की ज़ंजीरों से
बुरी तरह से कैद हो गये
भोले ईश्वर के हाथों से
सर्व-धर्म के प्रेम-जलज को
कुम्हलाकर गिरते देखा है
मन्दिर के ही एक अंधेरे
सीलन भरे किसी कोने में
नफरत, स्वार्थ और पापों के
भालों से छलनी सीने में-
से बहकर प्रभु के लोहू को
मिट्टी में मिलते देखा है
तड़प रहे ईश्वर की
चुपके-चुपके से फिर चिता जलाकर
और राख में धर्म, जाति की घृणा
स्वार्थ का ज़हर मिलाकर
सभी धर्मगुरुओं को फिर से
धर्म-ग्रन्थ लिखते देखा है