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"पूज्य कमल जी / 'सज्जन' धर्मेन्द्र" के अवतरणों में अंतर

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कीचड़ के शोषण से पाते हैं
  
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इनके कर्मों से घुटती है
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बेचारे कीचड़ की साँस
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मज़्लूमों के ख़ूँ से बुझती
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चमकीले रंगों की प्यास
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पर खिल कर ये सदा कीच के बाहर जाते है
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कीचड़ से इनके सारे मतलब के नाते हैं
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ये ख़ुश रहते वहाँ जहाँ
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कीचड़ समझा जाता कुत्सित
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देवों के मस्तक पर चढ़कर
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इनको दिखते नहीं दलित
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कष्ट न उनके इनके दिल को छू तक पाते है
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फेंक दिये जाते हैं बाहर
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ज्यूँ ही मुरझाने लगते
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कड़ी धूप में और धूल में
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घुट-घुट कर मरने लगते
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ऐसे में निर्धन-निर्बल ही गले लगाते हैं
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पर इनको निःस्वार्थ भाव कब पिघला पाते हैं
 
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21:03, 21 जनवरी 2019 के समय का अवतरण

पूज्य कमल जी
क्यों ख़ुद पर इतना इतराते हैं
रंग रूप सब
कीचड़ के शोषण से पाते हैं

इनके कर्मों से घुटती है
बेचारे कीचड़ की साँस
मज़्लूमों के ख़ूँ से बुझती
चमकीले रंगों की प्यास

पर खिल कर ये सदा कीच के बाहर जाते है
कीचड़ से इनके सारे मतलब के नाते हैं

ये ख़ुश रहते वहाँ जहाँ
कीचड़ समझा जाता कुत्सित
देवों के मस्तक पर चढ़कर
इनको दिखते नहीं दलित

बेदर्दी से जब सब मुफ़्लिस कुचले जाते हैं
कष्ट न उनके इनके दिल को छू तक पाते है

फेंक दिये जाते हैं बाहर
ज्यूँ ही मुरझाने लगते
कड़ी धूप में और धूल में
घुट-घुट कर मरने लगते

ऐसे में निर्धन-निर्बल ही गले लगाते हैं
पर इनको निःस्वार्थ भाव कब पिघला पाते हैं