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00:58, 22 जनवरी 2019 के समय का अवतरण

बारिश में बहती
नक्षत्रों के बीच
यात्राओं पर चली
मानव की गन्ध।

शहर में शहर की गन्ध है
मानव की गन्ध मशीनें बन
सड़क पर दौड़ती

बचते हम सरक आते
टूटे कूड़ेदानों के पास
वहाँ लेटी वही मानव-गन्ध

मानव-शिशु लेटा है
पटसन की बोरियों पर

गू-मूत के पास सक्रिय उसकी उँगलियाँ
शहर की गन्ध बटोर रहीं
जश्न-ए-आज़ादी से फिंके राष्ट्रध्वज में।