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"जब सचमुच थक जाता हूँ / अनुक्रमणिका / नहा कर नही लौटा है बुद्ध" के अवतरणों में अंतर

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01:07, 22 जनवरी 2019 के समय का अवतरण

खिड़की खोलता हूँ
देखता है मोर गर्दन टेढ़ी कर
चीख़ता ज़ोर से
हत्यारे को फाँसी दो

हम हिसाब लगाते हैं
नहीं हिटलर मौजूदा हत्यारों से भी बुरा था
हम जेबें टटोलते हैं
हत्यारों की मदद से मालामाल होते हैं

खुली खिड़की के पार मोर
कहीं दूर चला गया है
कहीं दूर जहाँ एक औरत
आज तक ढूँढ़ रही है
एक ऐसा हिसाब है यह
जो कभी पूरी तरह हल नहीं होता
बहुत पहले खो गया पति का चेहरा

सुनो वह औरत रोक रही है उसे
जो हत्यारे के साथ खेलने निकला है।