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"आदतन किसी ईश्वर को / अनुक्रमणिका / नहा कर नही लौटा है बुद्ध" के अवतरणों में अंतर

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11:36, 22 जनवरी 2019 के समय का अवतरण

उन दिनों जब हम धरती के एक ओर से दूसरी ओर
भेजते थे प्रेम के शब्द काग़ज़ और स्याही में बाँधकर
लिखने को ऐसी मजे़दार बातों की जगह न होती थी
अनगढ़ पर तीखे होते थे हमारे शब्द और आँसू भी कभी
टपकते थे उन पर मुझे याद हैं ऐसी दो घटनाएँ
पर सार होता था उसमें भरा पेड़ पर पके फलों जैसा
पढ़ता हूँ आज चैट संवाद दूर शहर से कि एक
व्यक्ति है जिसने समय पर भोजन नहीं किया है या
बस नहीं चलने पर नहीं देखा गया नाटक जो खेला गया
शहर के दूसरे कोनों में सचमुच ऐसी बातें नहीं होती थीं
हमारे ख़तों में उन दिनों गोया डाक की व्यवस्था ऐसी थी
कि हम जो लिखें उसमें वज़न हो हालाँकि हर ख़त में
पूछा जाता था कुशल क्षेम लिखे जाते थे कुछ सस्ते सही
मौलिक गीत के मुखड़े अधिकतर में आदतन किसी ईश्वर
को भी मिलती थी जगह