"एक दिन में कितने दुःख / अनुक्रमणिका / नहा कर नही लौटा है बुद्ध" के अवतरणों में अंतर
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शहर के व्यस्त चौराहे पर देखता हूँ
अदृश्य मानव सन्तान खेल रहे हैं
गिर रहे हैं मोपेड स्कूटरों पर पीछे बैठी सुन्दर युवतियों पर
चवन्नी अठन्नी के लिए
मैं नहीं देखता कि मेरे ही बच्चे हैं वह
डाँटता हूँ कहता हूँ हटो
नहीं उतरता सड़क पर सरकार से करने गुहार
कि मेरे बच्चों को बचाओ
मैं बीच रात सुनता हूँ यन्त्रों में एक नारी की अ़ावाज़
अकेली है वह बहुत अकेली
कोई नहीं है दोस्त उसका
कहता हूँ उसे कि मैं हूँ
भरोसा दिलाता हूँ दूसरों की तरफ़ से
पर वह है कि न रोती हुई भी रोती चली है
इतनी अकेली इतनी सुन्दर वह औरत
रात की रानी सी महकती बिलखती वह औरत
औरत का रोना काफ़ी नहीं है
यह जताने रोता है एक मर्द
जवान मर्द रोता है जीवन की निरर्थकता पर कुछ कहते हुए
भरोसा देता हूँ उसे पढ़ता हूँ वाल्ट व्हिटमैन
‘आय सेलीब्रेट माईसेल्फ...’
मुग्ध सुनता है वह एक बच्चे के कवि बनने की कहानी
एक पक्षी का रोना एक प्रेमी का बिछुड़ना
पढ़ते हुए मेरी आँखों से बहते हैं आँसू
हलकी फिसफिसाहट में शुक्रिया अदा करता हूँ कविता का
चलता हूँ निस्तब्ध रात को सड़क पर
कवि का जीवन जीते हुए
बहुत सारे दुःखों को साथ ले जाते हुए।