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"एक दिन में कितने दुःख / अनुक्रमणिका / नहा कर नही लौटा है बुद्ध" के अवतरणों में अंतर

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12:03, 22 जनवरी 2019 के समय का अवतरण

शहर के व्यस्त चौराहे पर देखता हूँ
अदृश्य मानव सन्तान खेल रहे हैं
गिर रहे हैं मोपेड स्कूटरों पर पीछे बैठी सुन्दर युवतियों पर
चवन्नी अठन्नी के लिए
मैं नहीं देखता कि मेरे ही बच्चे हैं वह
डाँटता हूँ कहता हूँ हटो
नहीं उतरता सड़क पर सरकार से करने गुहार
कि मेरे बच्चों को बचाओ
मैं बीच रात सुनता हूँ यन्त्रों में एक नारी की अ़ावाज़
अकेली है वह बहुत अकेली
कोई नहीं है दोस्त उसका
कहता हूँ उसे कि मैं हूँ

भरोसा दिलाता हूँ दूसरों की तरफ़ से
पर वह है कि न रोती हुई भी रोती चली है
इतनी अकेली इतनी सुन्दर वह औरत
रात की रानी सी महकती बिलखती वह औरत
औरत का रोना काफ़ी नहीं है
यह जताने रोता है एक मर्द
जवान मर्द रोता है जीवन की निरर्थकता पर कुछ कहते हुए
भरोसा देता हूँ उसे पढ़ता हूँ वाल्ट व्हिटमैन
‘आय सेलीब्रेट माईसेल्फ...’

मुग्ध सुनता है वह एक बच्चे के कवि बनने की कहानी
एक पक्षी का रोना एक प्रेमी का बिछुड़ना
पढ़ते हुए मेरी आँखों से बहते हैं आँसू
हलकी फिसफिसाहट में शुक्रिया अदा करता हूँ कविता का
चलता हूँ निस्तब्ध रात को सड़क पर
कवि का जीवन जीते हुए
बहुत सारे दुःखों को साथ ले जाते हुए।