"हर सुबह रेत बनता प्राण / बुद्ध / नहा कर नही लौटा है बुद्ध" के अवतरणों में अंतर
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12:37, 22 जनवरी 2019 के समय का अवतरण
हर सुबह उठते ही जब सोचता हूँ कि कपड़ा ठीक से पहन लूँ कि बाई चान्स कोई
खिड़की से देख न ले,
अख़बार धड़ाम से आ जाता है कि कहीं कोई फिर चीख़ा है कोई गरजा है
कि मनुष्य जंगली जानवर है
अब पूछते हो शाम होते ही मैं कहीं छिपा क्यों होता हूँ
जो देखता हूँ मस्तिष्क के किन दरवाज़ों में जा बसता है
जो सोचता हूँ वह रुक जाता है किसी और दरवाजे़ पर
यूँ मक़सद बनता है चमकीले दृश्यों का
बार बार यही देख रहा धरती के कोनों से आई चीख़ों में
इसी बीच सुनता हूँ पक्षियों का कलरव
हाइवे पर दौड़ती गाड़ियों की साँय साँय
समय का शून्य भरता है इस तरह
बदलता है कुछ एक पल और दूसरे पल के दरमियान
चलता रहता हूँ एक जगह पर थमा हुआ
अनजान लोगों को दुःख बाँटता हुआ
मैं कैसे किसी को रोक लूँ
कि वह दुःखों की चादर न ओढ़ ले
मैं स्वयं दुःखों का सागर हूँ
उत्ताल तरंगों में दुःखों के छींटे बिखेरता हूँ
अन्तहीन तटों में कण कण बरसता है दुःख
रेत बनता प्राण
बार बार मुझसे गीला होता हुआ।