भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"शीर्षक हीन चित्रों पर कविताएँ / ये लहरें घेर लेती हैं / मधु शर्मा" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मधु शर्मा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

02:14, 24 जनवरी 2019 के समय का अवतरण

1.

चंचल था
फ़ानी था
पत्थर जब पानी था।

2.

चेहरे पर पत्तियाँ
चूमते शाख
आ गिरे धरती पर
आवर्ती आकार तले-
चौकोर एक,
रंग हमस्याह
और सुखऱ् हुए जाते हैं।

3.

बेखटके खुलता है
रंग ऋतु का
बेखटके आती है रात
नींद का दरवाजा खोल

चितेरा मैं
खुलता हूँ रंगों में
बेगुरूर तेरे साथ
अपने क़द से उठता हुआ...

4.

खुल जाती हैं देहें रंगों की
जब भी पुकारी जाती हैं वे
दाखि़ल होने देतीं अपने भीतर रहस्य
सारी गोपनीयता उसे बताने को।

5.

रंग जो लग गया
तो हुई इच्छाएँ
रंगीन,
कैनवस पर झुका तो मैं
जन्मों से था
भीगा हुआ ब्रश लिए।

6.

खोजना
न होना है रंग में
न होना होना है
बस प्रेम में।

7.

पानियों में कितने रंग थे!
मैं कहाँ था
किस रंग में
कौन से पानी के अगम भीतर गया हुआ?

8.

वे सायास
अनायास तक फैले हुए
चुनौती देते थे रंग

कि लकीरें
अकबकायी खड़ी रहीं
ख़ाली कैनवस पर

9.

अंतिम विश्लेषण में
वह प्रेम है
कोई भी रूप धरे
वह कुछ भी कहे।

10.

वे लकीर भर थीं दीवारें
अगर कहीं मन होता
पोंछ देने का

दौड़ पड़ते बच्चे तब
धो लाते स्लेट।

11.

जहाँ रुकती है कूँची
रुक जाता रंग
कुछ देर देखता
फिर शामिल हो जाता चित्रकार
उन दोनों की बातों में

रंग और कूँची
ठिठक कर अलग हो जाते;
मारे संकोच के
वे कुछ कहते नहीं

मन जब चलता
तब चलती कूँची
रंग भी तब चलता सबसे आगे-
वह लाल होता
नीला, फिर पीला हो जाता हरा,
कहींदूर तब दिखता सफे़द
मन के परदों से निकल...

12.

जहाँ गिर जाते हैं सारे विश्वास
और मान्यताएँ सब
हो जाती हैं अमान्य
चुपचाप चलता है मौन तब
मन में घटित होता हुआ
पत्थर के बगीचों का
और बैठी रहती है एक चट्टान
ध्यान में डूबी हुई
जब तुम बनाते हो चित्र।

13.

अपने को रखता हूँ रंगों के विरुद्ध
खँगालता हूँ दृश्य
और अवसाद

धोता हूँ ब्रश और हाथ
सोचता हुआ
दृश्य कहाँ हुआ अदृश्य?

14.

मुश्किल नज़र आता है तुम्हारा प्रेम
और उसका उन्माद
अब भूल गया सीढ़ियाँ उतरना...
बस बचा है ऊपर को जाता रास्ता
जहाँ की खुली सीढ़ियों पर
कोई दरवाजा नहीं है

उच्चतर चेतना को छूते
ऊर्जा के तुम्हारे हााि
मुझे छूते हैं
और ये रंग प्रेम से घुले हुए

15.

एक से
दूसरे में दाखिल होता चौकोर
विदा लेता है
पूरे वृत्तांत से।

16.

रंग जो जानते थे
उसे मन भी जानता था
मन के जानने को
रंग ने कह दिया;
वह कूँची की नोक पर बैठा था
सधा हुआ
काग़ज़ के कोरेपन पर

कामनाएँ उठतीं
और फैल जातीं
धरती पर रहस्य के रंग-सी

रंग के रहस्य पर
मन का आकार लिखा था
धरती के सीने जितना
विशाल और करुणा से भरा-भरा।

17.

वे किसी विमर्श में नहीं,
चुपचाप चलते हैं रंग
समय की उदासी में दृश्य को सोचते
रंग के बाहर की दुनिया में
चीज़ों की शक्लें काली हैं
और ठोस चुभती हुई,
ध्वनियों के नीले ओंठ खुले हैं
भय की पीली साँस थमती और गिरती है
कहने को परोसती-
लो! ये है किया-धरा!

18.

मैं मुक्त होती हूँ दृश्यों में
जब वे लिखे जाते चित्रों के बीच

यह देह बँधी है देह के विज्ञान से-
जो भी भरा प्रकृति ने
इसकी कोशिकाओं में
इसके अचेतन और जैवशास्त्र के फेदों में फँसी
मैं खुलती हूँ शब्द और रंगों में
चेतना पर से पर्दे हटा।

19.

चेतना के प्रकाश में
खिलते हैं लाल, नीले, पीले और
धूसर अहसास,
काल के ढेर पर
रख आता हूँ सारा ताम-झाम,
दृश्य सब उँड़ेलता हूँ रंग में
इस देह के सकाम में
मुक्त मैं
संभव होता हूँ रचता हुआ फिर से
एक अनूठा अबूझ रहस्य
किसी उजले ये दृश्य का।

20.

विस्मय से भरे मन में
खुलता है द्वार दृश्य का
उभरती है एक कविता महान
विशाल फलक पर
रँगी जाती हुई

चलते हैं पाँव
हैरत में भूल जाते
छड़ी उठाना

जाता हूँ कहाँ कि भूल जाता
क्या लेने?- सोच कर
तनिक ठहरे पाँव
बैठ जाते वहीं आकारों में
रंग भरने की इच्छा के
अनहद नाद।

21.

रंगों का भी धड़कता है सीना
जब धड़कते हैं रंग सीने में

अभी आया है नींद से बाहर
जागता हुआ एक शिशु उनींदा
भौचक तुम्हारे मन से उठता वह
देखता है दुनिया को

कितने रंग थे चितेरे तुम्हारे हिस्से में?
वे कहाँ-कहाँ लगे
और छूट गये?
मैं उठती हूँ अपने हिस्से का रंग
कैनवस पर जिसे भूल
रिक्त हुआ करता है मन तुम्हारा,
कूँची पर जो रंग थे
धुलने से बचे
मैं उन्हें शब्दों में छिपाती हूँ
कि चोरी चले जाते रंग अगर?
मैं भरती उन्हें
अपने सिद्ध अकेलेपन में
सृजन के असंख्य बीजों से।

22.

आहिस्ता
छूती हैं काग़ज़ को उँगलियाँ
जैसे प्रेम को ओंठ
रंग को कूँची
जैसे भाव को छूती है
मैं छूती हूँ तुम्हें
जैसे हवाएँ छूती हैं...
धरती पर घुटने टेके
अपने ईज़ल पर रँगते हो कोई नया मन
बिना जाने कि किसे रँग दोगे अगले ही पल...
तब उठ खड़े होते हैं बिना कहे पहाड़
संकल्पों के,
एक नदी निरन्तता की
जैसे; बहती है नर्मदा तुम्हारे दिल से होती हुई

बनते हुए चित्र के साथ
एक नया मनुष्य होता है विकसित
भीतर ही भीतर
जब तुम छूते हो अंतिम स्पर्श देते
अपने ईज़ल पर चित्र
किसी चीज़ को अपने भीतर भी
देते हो अंतिम स्पर्श तब

एक नया मन
एक नया मनुष्य
कुछ हट कर देखता है अपना चित्र
इस दुनिया को प्यार करते हुए
और मैं देखती तुम्हें बहुत प्यार करते हुए...
इस तरह!