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"भीतर का बे-ढब / ये लहरें घेर लेती हैं / मधु शर्मा" के अवतरणों में अंतर

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02:25, 24 जनवरी 2019 के समय का अवतरण

इतनी ख़राबियाँ भीतर थीं
कि एक भी ख़ूबी बाहर नहीं दीखी
दीवारों पर सट कर लगे थे चित्र
दूर उनके विवरण पड़े थे
बेमेल चीज़ों से भरी मेज पर
मुद्दत से बे-समेटा था असबाब

तस्वीर में भी तरेरता आँखें
वह जन्मों का बैरी
बग़ल की
मुँह-सिली औरत का पति है

औरत चुपचाप कहीं निकल गई है-
इस वक़्त सबसे अधिक ख़तरा
उसे घर में है

तस्वीर वाला आदमी कुछ तरकीबें सुझाता है
भीतर के जासूस को,
जानता बस वह कुत्ता है
जो किसी खटके की टोह में जा छिपा मेज तले

बस, उसी को पता है
कब, कहाँ से लौटेगी औरत
पुराने दरवाजे़ से होती हुई।