भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"अभी हम खोल के दर आ रहे हैं / राज़िक़ अंसारी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राज़िक़ अंसारी }} {{KKCatGhazal}} <poem>अभी हम ख...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
(कोई अंतर नहीं)
|
09:38, 27 जनवरी 2019 के समय का अवतरण
अभी हम खोल के दर आ रहे हैं
नज़र यादों के मंजर आ रहे हैं
कहानी में कई ग़द्दार चेहरे
वफ़ादारी पहन कर आ रहे हैं
उठो माज़ी की खिड़की बन्द कर दो
पुराने ग़म पलट कर आ रहे हैं
अभी माहोल में इंसानियत है
अभी छत पे कबूतर आ रहे हैं
रखा था दोस्तों को आस्तीं में
निकल के सांप बाहर आ रहे हैं