भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
<poem>
मूक अब क्यों प्राण मेरे
कैसे कोई जानेगा?
एक निमिष का रहा अबोला
था प्राणों पर भारी।
स्वर सुने गुज़रा है अरसा
तब से अब तक
कितनी है लाचारी ,
मेरे मन -आँगन
केवल विष बरसा
भरी व्यथा
कितनी होगी मन में
व्याकुलता जान लो
दर्द हमारे एक हैं
खोलो मन की आँखें
खुद ही पहचान लो।
<poem>