भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"नासदीय सूक्त, ऋग्वेद - 10 / 129 / 2 / कुमार मुकुल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= कुमार मुकुल |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> ओह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
(कोई अंतर नहीं)

11:35, 7 मई 2019 का अवतरण

ओह घरी
मउअत ना रहे
अमरतो ना रहे
रात आउर दिन के
भेदो ना रहे
बिना हवा के शून्‍य में
ओह घरि
बस बरहम रहन
ओकर अलावे
केहू
कहीं ना रहे ॥2॥

न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः।
अनीद वातं स्वधया तदेकं तस्मादधान्यन्न पर किं च नास ॥2॥