"अधर छूकर(मुक्तक) / कविता भट्ट" के अवतरणों में अंतर
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+ | अधरं संस्पृश्यापि कण्ठः न कदापि सिञ्चितं शक्तं, | ||
+ | तेनैव चषकेण मम मध्वाभिलाषाऽऽसीत्। | ||
+ | सो मय्यन्विष्यन्नासीत् प्रतिपलं देवि!, | ||
+ | मया तस्मिन् केवलं मानवतायान्वेषणं विहितम्।। | ||
+ | ममान्तःकरणे भूत्वाऽपि यो सहैव नासीत्। | ||
+ | मदीया हृदयगतिस्तन्निकटैवासीत्। | ||
+ | स्मिततायाः शतं कारणानि सन्ति जगति, | ||
+ | पुनरप्यश्रुपूरिते नयने अहमुदासीना जाता।। | ||
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23:07, 20 मई 2019 का अवतरण
अधर छूकर भी कंठ न कभी सींच सका,
उसी प्याले से मुझे मधु की आस रही ।
वो मुझमें खोजता रहा हर पल देवी,
मुझे उसमें बस इंसाँ की तलाश रही ।
मेरे भीतर रहकर भी जो साथ न था
मेरी धड़कन उसी के आस -पास रही ।
मुस्कुराने के सौ बहाने दुनिया में
फिर भी नम हुई आँखें , मैं उदास रही ।
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मुक्तकम्-"अधरं संस्पृश्यापि"
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संस्कृतानुवादकः-आचार्यःविशालप्रसादभट्टः
संस्कृतप्रशिक्षकः-उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थानम्,लखनऊ
अधरं संस्पृश्यापि कण्ठः न कदापि सिञ्चितं शक्तं,
तेनैव चषकेण मम मध्वाभिलाषाऽऽसीत्।
सो मय्यन्विष्यन्नासीत् प्रतिपलं देवि!,
मया तस्मिन् केवलं मानवतायान्वेषणं विहितम्।।
ममान्तःकरणे भूत्वाऽपि यो सहैव नासीत्।
मदीया हृदयगतिस्तन्निकटैवासीत्।
स्मिततायाः शतं कारणानि सन्ति जगति,
पुनरप्यश्रुपूरिते नयने अहमुदासीना जाता।।