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"छोड़ दूँ कैसे भला मैं ये निशानी प्यार की / ऋषिपाल धीमान ऋषि" के अवतरणों में अंतर
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छोड़ दूँ कैसे भला मैं ये निशानी प्यार की?
इन दरो-दीवार से आती है ख़ुशबू यार की।
दूर तक हमको किनारा जब नज़र आया नहीं
तब विवश हो सो गये हम गोद में मझधार की।
मौत आनी है तो आ जाये हमें कुछ डर नहीं
खत्म होगी इक कहानी दर्द के संसार की।
आपकी यादें दहक उठती हैं जब अंगार सी
आग में जलते हैं हम फिर आपके रुख़सार की।
उसकी कश्ती को डुबोकर मौज भी रोने लगी
हाथ ही से जिसने पूरी की कभी पतवार की।
मुस्कुराये जा रहे हैं वो हमारी हार पर
उनको शायद पहले ही से थी खबर इस हार की।