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"मानना चाहे न कोई भी नसीहत आज कल / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'" के अवतरणों में अंतर
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मानना चाहे न कोई भी नसीहत आज कल
सिर्फ सबको है ज़माने से शिकायत आज कल।
नोंच लेती है सियासत उसके इक इक पंख को
जिस परिंदे में मिले ज़िंदा शराफ़त आज कल।
ख़त्म जागीरें हुई थीं किस लिए, कुछ बोलिये
किसके जिम्मे है किसानों की हिफाज़त आज कल।
मर गया हर एक रिश्ता सिर्फ मां को छोड़ कर
पत्थरों की कर रहे हैं सब वकालत आज कल।
सच है ये, संगीन चाहे जुर्म कितना क्यों न हो
दे न फांसी की सज़ा कोई अदावत आज कल।
तह में जाकर ये पता भी कर लिया 'विश्वास' ने
दर-गुज़र हो जाती है कैसे हक़ीक़त आज कल।