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"वागाम्भृणी सूक्त, ऋग्वेद - 10 / 125 / 4 / कुमार मुकुल" के अवतरणों में अंतर
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रवा लोग
हमार बात के
गांठ बाध लीहीं।
रवा सभे जे खाइला
जे देखींला, जे सुनींला
आउर सांस लीहींला
ओह सब में
हम शामिल बानी।
एकरा ना समझे वाला
धीरे-धीरे
विनाश गति के
प्राप्त हो जाला। ॥4॥
मया सो अन्नमत्ति यो विपश्यति यः प्राणिति य ईं शृणोत्युक्तम् ।
अमन्तवो मां त उप क्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धिवं ते वदामि ॥4॥