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"वागाम्भृणी सूक्त, ऋग्वेद - 10 / 125 / 6 / कुमार मुकुल" के अवतरणों में अंतर
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उ सुरूज लोक
आ इ धरती पर
हमहीं बेआपत हईं।
गेयान के दुश्मनन के
संहार खातिर
हमहीं धनुषबाण उठाईं ला।
अदमी जाह घरी
अपना भीतर के अज्ञान से
लड़ाई ठानेला
ताह घरी हमहीं
ओकरा साथ दिहींला॥6॥
अहं रुद्राय धनुरा तनोमि ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवा उ ।
अहं जनाय समदं कृणोम्यहं द्यावापृथिवी आ विवेश ॥6॥