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"कोई नदी कहाँ रहती है / तारकेश्वरी तरु 'सुधि'" के अवतरणों में अंतर

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कोई नदी कहाँ रहती है?
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पर्वत की सीमा में बँधकर ।
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अपनी धुन में बहती रहती ,
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अपनी धुन में बहती रहती,  
हर बाधा से पार गुज़रकर।
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इतना भी आसान नही है,
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चरणों में सीमित हो जाना ।
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अपना ही अस्तित्व किसी को,
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देकर खुद बंधित हो जाना ।
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अपनी हद ख़ुद तय करती है,
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पथरीली राहों से चलकर।
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कोई नदी...
  
कोई नदी..............
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सदा धीर-गम्भीर आपगा,
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सदियों से बहती आई है।
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सीने में पत्थर खाकर बस,
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तक़लीफें सहती आई है।
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फिर भी प्यास बुझाती सबकी,
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धरती की गोदी में बहकर।
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कोई नदी ...
  
सदा धीर-गम्भीर आपगा
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मत बाँधों सीमा में उसको,  
सदियों से बहती आई है।
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चुनने दो अपनी खुद राहें।  
सीने में पत्थर खाकर बस,
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नील गगन के नीचे उसको,  
तक़लीफें सहती आई है।
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फैलाने दो अपनी बाँहें।  
फिर भी प्यास बुझाती सबकी
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हे पर्वत! उसको मत रोको,  
धरती की गोदी में बहकर।
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बन जाओ तुम उसके सहचर।  
 
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कोई नहीं ...
कोई नदी ...........
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मत बाँधों सीमा में उसको ,
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चुनने दो अपनी खुद राहें।
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नील गगन के नीचे उसको ,
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फैलाने दो अपनी बाँहें।
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हे पर्वत !उसको मत रोको ,
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बन जाओ तुम उसके सहचर।
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कोई नही ..............
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23:24, 27 मई 2019 के समय का अवतरण

कोई नदी कहाँ रहती है?
पर्वत की सीमा में बँधकर।
अपनी धुन में बहती रहती,
हर बाधा से पार गुज़रकर।

इतना भी आसान नहीं है,
चरणों में सीमित हो जाना।
अपना ही अस्तित्व किसी को,
 देकर खुद बंधित हो जाना।
अपनी हद ख़ुद तय करती है,
पथरीली राहों से चलकर।
कोई नदी...

सदा धीर-गम्भीर आपगा,
सदियों से बहती आई है।
सीने में पत्थर खाकर बस,
तक़लीफें सहती आई है।
फिर भी प्यास बुझाती सबकी,
धरती की गोदी में बहकर।
कोई नदी ...

मत बाँधों सीमा में उसको,
चुनने दो अपनी खुद राहें।
नील गगन के नीचे उसको,
फैलाने दो अपनी बाँहें।
हे पर्वत! उसको मत रोको,
बन जाओ तुम उसके सहचर।
कोई नहीं ...