"सुबह का आना / काएसिन कुलिएव / सुधीर सक्सेना" के अवतरणों में अंतर
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− | कितनी भयावह थी मेरे लिए | + | कितनी भयावह थी मेरे लिए वह रात |
− | मुझे लगा कि मुझ पर गिर पड़ी हैं | + | मुझे लगा कि मुझ पर गिर पड़ी हैं ढेरों चट्टानें |
− | धँस गई | + | धँस गई हैं मेरे घर में, मुझे चकनाचूर करने के वास्ते |
टूट पड़ी हैं मुझ पर तमाम अप्रिय विपत्तियाँ | टूट पड़ी हैं मुझ पर तमाम अप्रिय विपत्तियाँ | ||
− | खिड़की पर जमा हो गए हैं दुनिया भर के खटके और अलाय-बलाय | + | खिड़की पर जमा हो गए हैं दुनिया भर के खटके |
+ | और अलाय-बलाय | ||
बग़ीचे के तमाम जाने-पहचाने परिचित पेड़ | बग़ीचे के तमाम जाने-पहचाने परिचित पेड़ | ||
− | जानलेवा फ़ौजी टुकड़ी से झपट पड़े मुझ पर | + | जानलेवा फ़ौजी टुकड़ी-से झपट पड़े मुझ पर |
’त्राहि माम् - त्राहि माम्’ — चिल्लाया मैं | ’त्राहि माम् - त्राहि माम्’ — चिल्लाया मैं | ||
जब आफ़तें बरसी मुझ पर तोप के गोलों-सी | जब आफ़तें बरसी मुझ पर तोप के गोलों-सी | ||
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जब कहीं किसी पराए देश में काल-कोठरी में | जब कहीं किसी पराए देश में काल-कोठरी में | ||
− | दम तोड़ता है कोई वीर या मारा जाता है | + | दम तोड़ता है कोई वीर या मारा जाता है कहीं कोई |
दम तोड़ता है मेरा हृदय, जैसे चट्टान पर मछली | दम तोड़ता है मेरा हृदय, जैसे चट्टान पर मछली | ||
− | दम तोड़ती है मेरी कविता, जैसे उड़ान के बीच बिन्धा | + | दम तोड़ती है मेरी कविता, जैसे उड़ान के बीच बिन्धा पाखी। |
+ | नीन्द आई, पर अचानक मुझे लगा | ||
+ | कि दो काली चीलें मण्डरा रही हैं सिर पर | ||
+ | कितनी लम्बी भयावह थी रात ! भरने लगे थे मेरे ज़ख़्म | ||
+ | उन्हें दुःस्वप्न ने फिर कुरेद दिया रिसने को | ||
+ | |||
+ | पहाड़ों में धमाके हुए, ठाँय गूँजी ज़ोरदार | ||
+ | मानो चट्टानें फट पड़ी हों रौन्दने को | ||
+ | मानो अँट गई हो धरती रक्त और कूड़े के ढेर से | ||
+ | ऐसे में तड़पा मैं बेतरह तुम्हारे लिए, भोर ! | ||
+ | |||
+ | मेरे लिए इतनी भयावह थी वह रात | ||
+ | मानो प्रकृति ने ही हथियार उठा लिए हों मेरे ख़िलाफ़ | ||
+ | भोर ! मुझे लगा मिट जाऊँगा मैं इस घोर अन्धियारे में | ||
+ | और कभी भी नहीं देख पाऊँगा तुम्हें | ||
+ | |||
+ | ओ भोर ! तुम आए अन्ततः, | ||
+ | जैसे आया हो पक्षी ऋतुराज का | ||
+ | जैसे ही तुम आए घर नहा गया उजाले से | ||
+ | और खिड़की पर लहक उठी फलों से लदी शाख | ||
+ | लौट आया मैं अपने आप में, वर्तमान में | ||
+ | |||
+ | तुम आए, भोर ! मानो आया हो फिर से बचपना | ||
+ | कन्धों पर उग से आए सुनहरे पँख | ||
+ | तुमने लौटा दिया मुझे खोया अस्तित्त्व | ||
+ | लौटाई ख़ुशी, मृदुता, लौटाया सँकल्प, लौटाई शक्ति | ||
+ | |||
+ | कितना लुभावना है तुम्हारा मुखड़ा, चहुँओर हर्ष | ||
+ | चहचहाती हैं चिड़ियाँ तुम्हारे नैसर्गिक गीत | ||
+ | फिर से आसमान आसमान-सा, धरती धरती-सी, | ||
+ | न कहीं कोई हौवा, न कहीं कोई बिजूका | ||
+ | |||
+ | वाह, जीवित हूँ मैं और हर्षित हैं मेरे बच्चे | ||
+ | फिर से पहली-सी ताज़ा है घास | ||
+ | चारागाहों में हैं मधुमक्खियों के झुण्ड के झुण्ड | ||
+ | धवल वस्त्रों में सजे-बिजे खड़े हैं पहाड़ | ||
+ | |||
+ | पेड़ यार-दोस्तों से घिरे खड़े हैं मकान, | ||
+ | सबकुछ व्यवस्थित है, लयबद्ध, नियमानुसार | ||
+ | घर में — सबकुछ है ठौर-ठिकाने | ||
+ | वाटिका में इठला रही सब्ज़ियों की कतार | ||
+ | |||
+ | तुम, ओ रक्त-हृदय पाखी ! सहजता से आते हो | ||
+ | पार कर हरे-भरे चिनारों की कतार | ||
+ | रात पूँछ फटकारती है दूर तक सुनहरी | ||
+ | और चीज़ों को लौटाती है ऐन्द्रिक अनुभूति | ||
+ | |||
+ | तुम आए हो तो लौट आई, जग उठी आकाँक्षा | ||
+ | शब्द हुए सम्पृक्त अर्थों से, | ||
+ | फिर थाम ली मैंने सीधे हाथ में लेखनी | ||
+ | नया नवल हो उठा सबकुछ आलोकित विश्व में | ||
+ | |||
+ | मेरे गीत हैं, जैसे उड़ान पर निकले हर्षोन्मत्त पाखी | ||
+ | कविता है मेरी उमँगों से लबरेज़ नीलवर्णी चिड़िया-सी | ||
+ | उमड़ती हैं नई पँक्तियाँ, रुनझुन-रुनझुन करती हैं यशोगान | ||
+ | नभ का मेघ का, पृथ्वी का, गेहूँ की बाली का । | ||
+ | |||
+ | एकाकी पनचक्की, शिलाखण्ड और उकाब | ||
+ | पर्वत पर सर्वत्र हर्ष ही हर्ष, मैं भी हर्षित । | ||
+ | भोर ! कितनी सलोनी धरती, कितना सलोना आकाश | ||
+ | सब अपनी-अपनी जगह, जिसे जहाँ होना चाहिए | ||
+ | |||
+ | तुम आते हो घर, ज्यों आए कोई ख़ुशख़बरी ही | ||
+ | तुममें आपाद-मस्तक नेकी ही नेकी | ||
+ | रात को परे धकेल देते हो । तुम ही तुम होते हो | ||
+ | और होती हैं ख़ुशियाँ और सबकुछ विलक्षण इस दुनिया में | ||
+ | |||
+ | सुबह ! तुम्हारे आते ही चल जाता है पता तुम्हारे आने का | ||
+ | पहाड़ की चोटी पर पसरती है हिम, | ||
+ | चमचमाती है नदी, चमचमाते हैं नवाँकुर | ||
+ | जागता खलभलाता है जीवन, बच्चे मगन क्रीड़ाओं में, | ||
+ | और औरतें मशगूल कामकाज में | ||
+ | |||
+ | तुम आते और लाते हो हम सबके वास्ते जीवन | ||
+ | लाते हो ताज़ा रोटी, निर्मल जल | ||
+ | हम ताकते हैं ऊपर को और देखते हैं आकाश — | ||
+ | देखते हैं आकाश में मेघ और स्वतन्त्रता | ||
+ | |||
+ | यक़ीन मानो — सुबह सबकुछ लगता है भला | ||
+ | हमारे आऊल<ref>तातारी और कोहकाफ़ की भाषाओं में इस शब्द का मतलब है — गाँव</ref> में फटकती नहीं हैं पापात्माएँ | ||
+ | चूल्हे में सिंकती है रोटी, दीवार पर थिरकती हैं किरणें | ||
+ | बच्चे, बूढ़े और जवान सब के सब ज़िन्दादिल, अलमस्त । | ||
+ | |||
+ | सुबह ! तुम्हारे आने पर तुम्हारे साथ देखी मैंने दुनिया | ||
+ | मैं फटाफट काटता हूँ एक तरबूज आतिथ्य के लिए | ||
+ | और करता हूँ इन्तज़ार पहाड़ का, | ||
+ | जो है ख़ुशी की मदिरा में बेतरह चूर । | ||
+ | |||
+ | विस्मय-विमुग्ध मैं निहारता हूँ चारों ओर | ||
+ | अपनी ही सृष्टि पर चकित | ||
+ | पता नहीं यह कल्पना है या | ||
+ | मैंने ही गढ़ा है इन्हें हाथों हाथ | ||
+ | |||
+ | सुबह है अन्त सपने का — अन्त परेशानियों का | ||
+ | सुबह है प्रारम्भ यात्रा का, शुरुआत रास्ते की | ||
+ | सुबह है जन्म श्रम से भरे-पूरे दिन का | ||
+ | सुबह है समय नए-नए शब्दों के खिलने का | ||
+ | |||
+ | सुबह हमें देती है उपहार में फूलों के गुच्छे और काम, | ||
+ | देती है बच्चों को फूल और खिलौने, | ||
+ | सुबह हर्ष का बायस है, अश्वारोही और श्रमिक के वास्ते | ||
+ | सुबह — सिरहाने का पत्थर मुझे लगता है | ||
+ | कोमल तकिये-सा | ||
+ | |||
+ | सुबह के आने से समाप्त सारी दुश्चिन्ताएँ | ||
+ | सबकुछ ठीक-ठाक, सही-सलामत निज़ाम में | ||
+ | नभ नभ-सा, धरती धरती-सी, | ||
+ | बग़ीचे में पक रही हैं नाशपातियाँ और | ||
+ | घरों में गून्धा जा रहा है आटा । | ||
'''अँग्रेज़ी से अनुवाद : [[सुधीर सक्सेना]]''' | '''अँग्रेज़ी से अनुवाद : [[सुधीर सक्सेना]]''' | ||
</poem> | </poem> | ||
+ | {{KKMeaning}} |
19:43, 1 जून 2019 के समय का अवतरण
कितनी भयावह थी मेरे लिए वह रात
मुझे लगा कि मुझ पर गिर पड़ी हैं ढेरों चट्टानें
धँस गई हैं मेरे घर में, मुझे चकनाचूर करने के वास्ते
टूट पड़ी हैं मुझ पर तमाम अप्रिय विपत्तियाँ
खिड़की पर जमा हो गए हैं दुनिया भर के खटके
और अलाय-बलाय
बग़ीचे के तमाम जाने-पहचाने परिचित पेड़
जानलेवा फ़ौजी टुकड़ी-से झपट पड़े मुझ पर
’त्राहि माम् - त्राहि माम्’ — चिल्लाया मैं
जब आफ़तें बरसी मुझ पर तोप के गोलों-सी
मुझे लगा कि मैं ही हूँ गुनहगार,
दोषी हूँ मैं जहाँ-तहाँ निर्दोषों के रक्तपात के लिए
ख़ून से लथपथ है धरती, रक्त से सने हैं खेत और घर
और प्राची में अब कभी फूटेगी नहीं लालिमा
जब कहीं गोली दाग़ी जाती है सत्य के योद्धा पर
होमर या लोर्का के देश में, वह
और कहीं नहीं, सीधे वार करती है
मेरे घर में घुसकर मेरे ही सीने पर
जब कहीं किसी पराए देश में काल-कोठरी में
दम तोड़ता है कोई वीर या मारा जाता है कहीं कोई
दम तोड़ता है मेरा हृदय, जैसे चट्टान पर मछली
दम तोड़ती है मेरी कविता, जैसे उड़ान के बीच बिन्धा पाखी।
नीन्द आई, पर अचानक मुझे लगा
कि दो काली चीलें मण्डरा रही हैं सिर पर
कितनी लम्बी भयावह थी रात ! भरने लगे थे मेरे ज़ख़्म
उन्हें दुःस्वप्न ने फिर कुरेद दिया रिसने को
पहाड़ों में धमाके हुए, ठाँय गूँजी ज़ोरदार
मानो चट्टानें फट पड़ी हों रौन्दने को
मानो अँट गई हो धरती रक्त और कूड़े के ढेर से
ऐसे में तड़पा मैं बेतरह तुम्हारे लिए, भोर !
मेरे लिए इतनी भयावह थी वह रात
मानो प्रकृति ने ही हथियार उठा लिए हों मेरे ख़िलाफ़
भोर ! मुझे लगा मिट जाऊँगा मैं इस घोर अन्धियारे में
और कभी भी नहीं देख पाऊँगा तुम्हें
ओ भोर ! तुम आए अन्ततः,
जैसे आया हो पक्षी ऋतुराज का
जैसे ही तुम आए घर नहा गया उजाले से
और खिड़की पर लहक उठी फलों से लदी शाख
लौट आया मैं अपने आप में, वर्तमान में
तुम आए, भोर ! मानो आया हो फिर से बचपना
कन्धों पर उग से आए सुनहरे पँख
तुमने लौटा दिया मुझे खोया अस्तित्त्व
लौटाई ख़ुशी, मृदुता, लौटाया सँकल्प, लौटाई शक्ति
कितना लुभावना है तुम्हारा मुखड़ा, चहुँओर हर्ष
चहचहाती हैं चिड़ियाँ तुम्हारे नैसर्गिक गीत
फिर से आसमान आसमान-सा, धरती धरती-सी,
न कहीं कोई हौवा, न कहीं कोई बिजूका
वाह, जीवित हूँ मैं और हर्षित हैं मेरे बच्चे
फिर से पहली-सी ताज़ा है घास
चारागाहों में हैं मधुमक्खियों के झुण्ड के झुण्ड
धवल वस्त्रों में सजे-बिजे खड़े हैं पहाड़
पेड़ यार-दोस्तों से घिरे खड़े हैं मकान,
सबकुछ व्यवस्थित है, लयबद्ध, नियमानुसार
घर में — सबकुछ है ठौर-ठिकाने
वाटिका में इठला रही सब्ज़ियों की कतार
तुम, ओ रक्त-हृदय पाखी ! सहजता से आते हो
पार कर हरे-भरे चिनारों की कतार
रात पूँछ फटकारती है दूर तक सुनहरी
और चीज़ों को लौटाती है ऐन्द्रिक अनुभूति
तुम आए हो तो लौट आई, जग उठी आकाँक्षा
शब्द हुए सम्पृक्त अर्थों से,
फिर थाम ली मैंने सीधे हाथ में लेखनी
नया नवल हो उठा सबकुछ आलोकित विश्व में
मेरे गीत हैं, जैसे उड़ान पर निकले हर्षोन्मत्त पाखी
कविता है मेरी उमँगों से लबरेज़ नीलवर्णी चिड़िया-सी
उमड़ती हैं नई पँक्तियाँ, रुनझुन-रुनझुन करती हैं यशोगान
नभ का मेघ का, पृथ्वी का, गेहूँ की बाली का ।
एकाकी पनचक्की, शिलाखण्ड और उकाब
पर्वत पर सर्वत्र हर्ष ही हर्ष, मैं भी हर्षित ।
भोर ! कितनी सलोनी धरती, कितना सलोना आकाश
सब अपनी-अपनी जगह, जिसे जहाँ होना चाहिए
तुम आते हो घर, ज्यों आए कोई ख़ुशख़बरी ही
तुममें आपाद-मस्तक नेकी ही नेकी
रात को परे धकेल देते हो । तुम ही तुम होते हो
और होती हैं ख़ुशियाँ और सबकुछ विलक्षण इस दुनिया में
सुबह ! तुम्हारे आते ही चल जाता है पता तुम्हारे आने का
पहाड़ की चोटी पर पसरती है हिम,
चमचमाती है नदी, चमचमाते हैं नवाँकुर
जागता खलभलाता है जीवन, बच्चे मगन क्रीड़ाओं में,
और औरतें मशगूल कामकाज में
तुम आते और लाते हो हम सबके वास्ते जीवन
लाते हो ताज़ा रोटी, निर्मल जल
हम ताकते हैं ऊपर को और देखते हैं आकाश —
देखते हैं आकाश में मेघ और स्वतन्त्रता
यक़ीन मानो — सुबह सबकुछ लगता है भला
हमारे आऊल<ref>तातारी और कोहकाफ़ की भाषाओं में इस शब्द का मतलब है — गाँव</ref> में फटकती नहीं हैं पापात्माएँ
चूल्हे में सिंकती है रोटी, दीवार पर थिरकती हैं किरणें
बच्चे, बूढ़े और जवान सब के सब ज़िन्दादिल, अलमस्त ।
सुबह ! तुम्हारे आने पर तुम्हारे साथ देखी मैंने दुनिया
मैं फटाफट काटता हूँ एक तरबूज आतिथ्य के लिए
और करता हूँ इन्तज़ार पहाड़ का,
जो है ख़ुशी की मदिरा में बेतरह चूर ।
विस्मय-विमुग्ध मैं निहारता हूँ चारों ओर
अपनी ही सृष्टि पर चकित
पता नहीं यह कल्पना है या
मैंने ही गढ़ा है इन्हें हाथों हाथ
सुबह है अन्त सपने का — अन्त परेशानियों का
सुबह है प्रारम्भ यात्रा का, शुरुआत रास्ते की
सुबह है जन्म श्रम से भरे-पूरे दिन का
सुबह है समय नए-नए शब्दों के खिलने का
सुबह हमें देती है उपहार में फूलों के गुच्छे और काम,
देती है बच्चों को फूल और खिलौने,
सुबह हर्ष का बायस है, अश्वारोही और श्रमिक के वास्ते
सुबह — सिरहाने का पत्थर मुझे लगता है
कोमल तकिये-सा
सुबह के आने से समाप्त सारी दुश्चिन्ताएँ
सबकुछ ठीक-ठाक, सही-सलामत निज़ाम में
नभ नभ-सा, धरती धरती-सी,
बग़ीचे में पक रही हैं नाशपातियाँ और
घरों में गून्धा जा रहा है आटा ।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुधीर सक्सेना