भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"बुराँस की नई कली / कविता भट्ट" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKRachna |रचनाकार=कविता भट्ट |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem>...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
पंक्ति 6: पंक्ति 6:
 
{{KKCatKavita}}
 
{{KKCatKavita}}
 
<poem>
 
<poem>
 +
 +
बुराँस की नई कली किवाड़ खोलकर चली
 +
सखी बसंत आ गया, दिशा-दिगंत छा गया
 +
 +
पहाड़ियों का यह नगर
 +
प्रेम गीत गुनगुना रहा
 +
मुक्त भाव नदी-निर्झर
 +
सुर-संगीत झनझना रहा
 +
पर्वतों के कंठ में सुवास-सुरा घोल कर चली
 +
सखी बसंत आ गया, धवल हिमवंत भा गया
 +
 +
ये डाल-डाल झूमेगा
 +
नव पात-पात घूमेगा
 +
मन में आस है भरी
 +
शाख सब होंगी हरी
 +
एक किरण छू गई नन्ही-सी डोल कर चली
 +
सखी बसंत आ गया, अम्बर-पर्यंत छा गया
 +
 +
किवाड़ गाँव के विकल
 +
झूम कर खुलेंगे कल
 +
अब रंग जाएँगे बदल
 +
पहाड़ सब जाएँगे संवर
 +
कानों में प्रेम के मीठे बोल, बोलकर चली
 +
सखी बसंत आ गया, शकुंतला-हिय दुष्यंत छा गया 
  
  
 
</poem>
 
</poem>

09:08, 28 जून 2019 का अवतरण


बुराँस की नई कली किवाड़ खोलकर चली
सखी बसंत आ गया, दिशा-दिगंत छा गया

पहाड़ियों का यह नगर
प्रेम गीत गुनगुना रहा
 मुक्त भाव नदी-निर्झर
सुर-संगीत झनझना रहा
पर्वतों के कंठ में सुवास-सुरा घोल कर चली
सखी बसंत आ गया, धवल हिमवंत भा गया

ये डाल-डाल झूमेगा
नव पात-पात घूमेगा
मन में आस है भरी
शाख सब होंगी हरी
एक किरण छू गई नन्ही-सी डोल कर चली
सखी बसंत आ गया, अम्बर-पर्यंत छा गया

किवाड़ गाँव के विकल
झूम कर खुलेंगे कल
अब रंग जाएँगे बदल
पहाड़ सब जाएँगे संवर
कानों में प्रेम के मीठे बोल, बोलकर चली
सखी बसंत आ गया, शकुंतला-हिय दुष्यंत छा गया 