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15:40, 12 जुलाई 2019 के समय का अवतरण
एक कविता में पढ़ता हूँ :
बोलना दिव्य है ।
लेकिन देवता बोलते नहीं :
वे दुनिया बनाते और बिगाड़ते हैं ।
वे डरावने खेल खेलते रहते हैं
शब्दों के बिना ।
रुह उतरती है,
ज़ुबान खुलती है,
लेकिन शब्द नहीं निकलते :
आग निकलती है ।
किसी देवता की जलाई हुई
भाषा बन जाती है
दैववाणी
जले शब्दों की
लपट और धुएँ का
मीनार और खण्डहर :
अर्थहीन राख ।
इनसान का शब्द
मौत की बेटी है ।
हम बोलते हैं क्योंकि हम नश्वर हैं :
शब्द सँकेत नहीं, बीते हुए बरस हैं ।
जो कहते हैं, जो वो कहते हैं,
हमारे कहे गए शब्द
समय हैं : वे हमें नाम देते हैं ।
हम समय के नाम हैं ।
बोलना मानवीय है ।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : उज्ज्वल भट्टाचार्य