भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"भूल-ग़लती / अनिल अनलहातु" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनिल अनलहातु |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 9: | पंक्ति 9: | ||
मेरे भीतर से चलकर | मेरे भीतर से चलकर | ||
वह मुझ तक आया | वह मुझ तक आया | ||
− | और एक | + | और एक ज़ोर का |
तमाचा लगाकर | तमाचा लगाकर | ||
− | चलता बना | + | चलता बना । |
− | मैं अवाक्, हतबुद्धि, | + | |
+ | मैं अवाक्, हतबुद्धि, फ़ाजिल सन्नाटे में था, | ||
कि मेरी आस्थाओं की नग्नता देख | कि मेरी आस्थाओं की नग्नता देख | ||
वह रुका | वह रुका | ||
बड़े विद्रूप ढंग-से मुस्कराया | बड़े विद्रूप ढंग-से मुस्कराया | ||
− | औ’ आशंका और | + | औ’ आशंका और सम्भावनाओं |
− | के | + | के चन्द टुकड़े |
उछालकर मेरी ओर | उछालकर मेरी ओर | ||
− | चला गया | + | चला गया । |
− | स्मृतियों के | + | |
+ | स्मृतियों के जँगलाती महकमे से | ||
निकल तब | निकल तब | ||
एक-एक कर चले आते | एक-एक कर चले आते | ||
और बैठते जाते | और बैठते जाते | ||
− | खेत की टेढ़ी-मेढ़ी | + | खेत की टेढ़ी-मेढ़ी मेड़ों पर पँक्तिबद्ध |
− | + | यहाँ से वहाँ | |
− | + | जँगल से लेकर गाँव के सिवान तक, | |
− | और शुरू हो जाती | + | और शुरू हो जाती अन्तहीन बहसें । |
− | सुबह से रात और रात से सुबह तक | + | |
− | तब तक जब तक | + | सुबह से रात और रात से सुबह तक |
− | + | तब तक, जब तक | |
+ | मन्दिर की दरकी दीवारों के पार | ||
गर्भ-गृह के सूनेपन मे सिहरता ईश्वर | गर्भ-गृह के सूनेपन मे सिहरता ईश्वर | ||
कूच कर जाता है और मस्जिद से आती | कूच कर जाता है और मस्जिद से आती | ||
− | अज़ान की | + | अज़ान की आवाज़ों में |
− | + | ख़ुदा ठहर-सा जाता है । | |
</poem> | </poem> |
17:35, 22 जुलाई 2019 के समय का अवतरण
मेरे भीतर से चलकर
वह मुझ तक आया
और एक ज़ोर का
तमाचा लगाकर
चलता बना ।
मैं अवाक्, हतबुद्धि, फ़ाजिल सन्नाटे में था,
कि मेरी आस्थाओं की नग्नता देख
वह रुका
बड़े विद्रूप ढंग-से मुस्कराया
औ’ आशंका और सम्भावनाओं
के चन्द टुकड़े
उछालकर मेरी ओर
चला गया ।
स्मृतियों के जँगलाती महकमे से
निकल तब
एक-एक कर चले आते
और बैठते जाते
खेत की टेढ़ी-मेढ़ी मेड़ों पर पँक्तिबद्ध
यहाँ से वहाँ
जँगल से लेकर गाँव के सिवान तक,
और शुरू हो जाती अन्तहीन बहसें ।
सुबह से रात और रात से सुबह तक
तब तक, जब तक
मन्दिर की दरकी दीवारों के पार
गर्भ-गृह के सूनेपन मे सिहरता ईश्वर
कूच कर जाता है और मस्जिद से आती
अज़ान की आवाज़ों में
ख़ुदा ठहर-सा जाता है ।