"मंच और मचान (लम्बी कविता) / केदारनाथ सिंह" के अवतरणों में अंतर
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− | + | '''उदय प्रकाश के लिए | |
पत्तों की तरह बोलते | पत्तों की तरह बोलते | ||
तने की तरह चुप | तने की तरह चुप | ||
− | एक | + | एक ठिगने से चीनी भिक्खु थे वे |
जिन्हें उस जनपद के लोग कहते थे | जिन्हें उस जनपद के लोग कहते थे | ||
चीना बाबा | चीना बाबा | ||
पंक्ति 17: | पंक्ति 17: | ||
कब आए थे रामाभार स्तूप पर | कब आए थे रामाभार स्तूप पर | ||
यह कोई नहीं जानता था | यह कोई नहीं जानता था | ||
− | पर जानना | + | पर जानना ज़रूरी भी नहीं था |
− | उनके लिए तो बस इतना ही बहुत था | + | उनके लिए तो, बस, इतना ही बहुत था |
कि वहाँ स्तूप पर खड़ा है | कि वहाँ स्तूप पर खड़ा है | ||
− | चिड़ियों से | + | चिड़ियों से जगर-मगर एक युवा बरगद |
बरगद पर मचान है | बरगद पर मचान है | ||
और मचान पर रहते हैं वे | और मचान पर रहते हैं वे | ||
पंक्ति 27: | पंक्ति 27: | ||
अगर भूलता नहीं तो यह पिछली सदी के | अगर भूलता नहीं तो यह पिछली सदी के | ||
पाँचवें दशक का कोई एक दिन था | पाँचवें दशक का कोई एक दिन था | ||
− | जब सड़क की ओर से भोंपू की | + | जब सड़क की ओर से भोंपू की आवाज़ आई |
"भाइयो और बहनो, | "भाइयो और बहनो, | ||
− | + | प्रधानमन्त्री आ रहे हैं स्तूप को देखने..." | |
− | + | प्रधानमन्त्री ! | |
खिल गए लोग | खिल गए लोग | ||
− | जैसे कुछ मिल गया हो सुबह सुबह | + | जैसे कुछ मिल गया हो सुबह-सुबह |
− | पर कैसी | + | पर कैसी विडम्बना |
कि वे जो लोग थे | कि वे जो लोग थे | ||
− | + | सिर्फ़ नेहरू को जानते थे | |
− | + | प्रधानमन्त्री को नहीं ! | |
सो इस शब्द के अर्थ तक पहुँचने में | सो इस शब्द के अर्थ तक पहुँचने में | ||
− | उन्हें | + | उन्हें काफ़ी दिक़्क़त हुई |
− | फिर भी सुर्ती मलते और बोलते बतियाते | + | फिर भी सुर्ती मलते और बोलते-बतियाते |
पहुँच ही गए वे वहाँ तक | पहुँच ही गए वे वहाँ तक | ||
− | कहाँ तक? | + | कहाँ तक ? |
यह कहना मुश्किल है | यह कहना मुश्किल है | ||
− | कहते हैं | + | कहते हैं — प्रधानमन्त्री आए |
उन्होंने चारों ओर घूम कर देखा स्तूप को | उन्होंने चारों ओर घूम कर देखा स्तूप को | ||
फिर देखा बरगद को | फिर देखा बरगद को | ||
जो खड़ा था स्तूप पर | जो खड़ा था स्तूप पर | ||
− | पर न जाने क्यों | + | पर, न जाने क्यों |
वे हो गए उदास | वे हो गए उदास | ||
− | (और कहते हैं | + | (और कहते हैं — नेहरू अक्सर |
उदास हो जाते थे) | उदास हो जाते थे) | ||
फिर जाते जाते एक अधिकारी को | फिर जाते जाते एक अधिकारी को | ||
पास बुलाया | पास बुलाया | ||
− | कहा | + | कहा — देखो, उस बरगद को गौर से देखो |
− | उसके बोझ से | + | उसके बोझ से टूटकर |
गिर सकता है स्तूप | गिर सकता है स्तूप | ||
− | इसलिए | + | इसलिए हुक़्म है कि देशहित में |
काट डालो बरगद | काट डालो बरगद | ||
और बचा लो स्तूप को | और बचा लो स्तूप को | ||
− | यह राष्ट्र के भव्यतम | + | यह राष्ट्र के भव्यतम मँच का आदेश था |
− | जाने अनजाने एक मचान के विरुद्ध | + | जाने-अनजाने एक मचान के विरुद्ध |
इस तरह उस दिन एक अद्भुत घटना घटी | इस तरह उस दिन एक अद्भुत घटना घटी | ||
भारत के इतिहास में | भारत के इतिहास में | ||
− | कि | + | कि मँच और मचान |
− | यानी एक ही शब्द के | + | यानी एक ही शब्द के लम्बे इतिहास के |
− | दोनों | + | दोनों ओर-छोर |
अचानक आ गए आमने सामने | अचानक आ गए आमने सामने | ||
अगले दिन | अगले दिन | ||
− | सूर्य के | + | सूर्य के घण्टे की पहली चोट के साथ |
− | स्तूप पर आ गए | + | स्तूप पर आ गए — |
बढ़ई | बढ़ई | ||
मजूर | मजूर | ||
इंजीनियर | इंजीनियर | ||
कारीगर | कारीगर | ||
− | आ गए लोग दूर दूर से | + | आ गए लोग दूर-दूर से |
इधर अधिकारी परेशान | इधर अधिकारी परेशान | ||
क्योंकि उन्हें पता था | क्योंकि उन्हें पता था | ||
− | + | ख़ाली नहीं है बरगद | |
कि उस पर एक मचान है | कि उस पर एक मचान है | ||
− | और मचान भी | + | और मचान भी ख़ाली नहीं |
क्योंकि उस पर रहता है एक आदमी | क्योंकि उस पर रहता है एक आदमी | ||
− | और | + | और ख़ाली नहीं आदमी भी |
− | क्योंकि वह | + | क्योंकि वह ज़िन्दा है |
और बोल सकता है | और बोल सकता है | ||
− | क्या किया जाय? | + | क्या किया जाय ? |
− | + | हुक़्म दिल्ली का | |
और समस्या जटिल | और समस्या जटिल | ||
देर तक खड़े-खड़े सोचते रहे वे | देर तक खड़े-खड़े सोचते रहे वे | ||
कि सहसा किसी एक ने | कि सहसा किसी एक ने | ||
− | हाथ उठा प्रार्थना की | + | हाथ उठा प्रार्थना की — |
"चीना बाबा, | "चीना बाबा, | ||
− | ओ ओ चीना बाबा! | + | ओ ओ चीना बाबा ! |
नीचे उतर आओ | नीचे उतर आओ | ||
− | बरगद काटा | + | बरगद काटा जाएगा" |
− | "काटा जाएगा? | + | "काटा जाएगा ? |
− | क्यों? लेकिन क्यों?" | + | क्यों ? लेकिन क्यों ?" |
− | जैसे पत्तों से फूट कर जड़ों की | + | जैसे पत्तों से फूट कर जड़ों की आवाज़ आई |
− | "ऊपर का आदेश है | + | "ऊपर का आदेश है — " |
नीचे से उतर गया | नीचे से उतर गया | ||
− | "तो शुनो," | + | "तो शुनो," — भिक्खु अपनी चीनी गमक वाली |
− | + | हिन्दी में बोला, | |
'चाये काट डालो मुझी को | 'चाये काट डालो मुझी को | ||
उतरूँगा नईं | उतरूँगा नईं | ||
− | ये मेरा घर है!" | + | ये मेरा घर है !" |
− | भिक्खु की | + | भिक्खु की आवाज़ में |
बरगद के पत्तों के दूध का बल था | बरगद के पत्तों के दूध का बल था | ||
अब अधिकारियों के सामने | अब अधिकारियों के सामने | ||
− | एक विकट सवाल था | + | एक विकट सवाल था — एकदम अभूतपूर्व |
− | पेड़ है कि घर | + | पेड़ है कि घर ... |
यह एक ऐसा सवाल था | यह एक ऐसा सवाल था | ||
जिस पर कानून चुप था | जिस पर कानून चुप था | ||
− | इस पर तो | + | इस पर तो कविताएँ भी चुप हैं |
एक कविता प्रेमी अधिकारी ने | एक कविता प्रेमी अधिकारी ने | ||
धीरे से टिप्पणी की | धीरे से टिप्पणी की | ||
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दूर तक जब कुछ नहीं सूझा | दूर तक जब कुछ नहीं सूझा | ||
तो अधिकारियों ने राज्य के उच्चतम | तो अधिकारियों ने राज्य के उच्चतम | ||
− | अधिकारी से | + | अधिकारी से सम्पर्क किया |
− | और गहन छानबीन के बाद पाया गया | + | और गहन छानबीन के बाद पाया गया — |
− | मामला भिक्खु के चीवर सा | + | मामला भिक्खु के चीवर-सा |
− | बरगद की | + | बरगद की लम्बी बरोहों से उलझ गया है |
− | + | हारकर पाछकर अन्ततः तय हुआ | |
− | दिल्ली से पूछा | + | दिल्ली से पूछा जाए |
− | और कहते हैं | + | और कहते हैं — |
दिल्ली को कुछ भी याद नहीं था | दिल्ली को कुछ भी याद नहीं था | ||
− | न | + | न हुक़्म |
न बरगद | न बरगद | ||
न दिन | न दिन | ||
− | न | + | न तारीख़ |
− | कुछ भी | + | कुछ भी — कुछ भी याद ही नहीं था |
− | पर जब | + | पर जब परत-दर-परत |
− | इधर से बताई गई स्थिति की | + | इधर से बताई गई स्थिति की गम्भीरता |
और उधर लगा कि अब भिक्खु का घर | और उधर लगा कि अब भिक्खु का घर | ||
यानी वह युवा बरगद | यानी वह युवा बरगद | ||
− | कुल्हाड़े की धार से बस कुछ मिनट दूर है | + | कुल्हाड़े की धार से, बस, कुछ मिनट दूर है |
− | तो | + | तो ख़याल है कि दिल्ली ने जल्दी-जल्दी |
दूत के जरिए बीजिंग से बात की | दूत के जरिए बीजिंग से बात की | ||
इस हल्की सी उम्मीद में कि शायद | इस हल्की सी उम्मीद में कि शायद | ||
− | कोई रास्ता निकल | + | कोई रास्ता निकल आए |
एक कयास यह भी | एक कयास यह भी | ||
− | कि बात शायद माओ की मेज तक | + | कि बात शायद माओ की मेज तक गई |
अब यह कितना सही है | अब यह कितना सही है | ||
− | कितना | + | कितना ग़लत |
साक्ष्य नहीं कोई कि जाँच सकूँ इसे | साक्ष्य नहीं कोई कि जाँच सकूँ इसे | ||
− | पर मेरा मन कहता है काश यह सच हो | + | पर मेरा मन कहता है — काश ! यह सच हो |
कि उस दिन | कि उस दिन | ||
विश्व में पहली बार दो राष्ट्रों ने | विश्व में पहली बार दो राष्ट्रों ने | ||
एक पेड़ के बारे में बातचीत की | एक पेड़ के बारे में बातचीत की | ||
− | + | — तो पाठकगण | |
− | यह रहा एक | + | यह रहा एक धुन्धला सा प्रिण्ट आउट |
उन लोगों की स्मृति का | उन लोगों की स्मृति का | ||
जिन्हें मैंने खो दिया था बरसों पहले | जिन्हें मैंने खो दिया था बरसों पहले | ||
− | और | + | और छपते-छपते इतना और |
− | कि | + | कि हुक़्म की तामील तो होनी ही थी |
− | सो | + | सो जैसे-तैसे पुलिस के द्वारा |
बरगद से नीचे उतारा गया भिक्खु को | बरगद से नीचे उतारा गया भिक्खु को | ||
− | और हाथ उठाए | + | और हाथ उठाए — मानो पूरे ब्रह्माण्ड में |
− | चिल्लाता रहा वह | + | चिल्लाता रहा वह — |
"घर है...ये...ये....मेरा घर है' | "घर है...ये...ये....मेरा घर है' | ||
पर जो भी हो | पर जो भी हो | ||
− | अब मौके पर मौजूद | + | अब मौके पर मौजूद टँगे कुल्हाड़ों का |
− | रास्ता | + | रास्ता साफ़ था |
एक हल्का सा इशारा और ठक् ...ठक् | एक हल्का सा इशारा और ठक् ...ठक् | ||
गिरने लगे वे बरगद की जड़ पर | गिरने लगे वे बरगद की जड़ पर | ||
पहली चोट के बाद ऐसा लगा | पहली चोट के बाद ऐसा लगा | ||
− | जैसे लोहे ने | + | जैसे लोहे ने झुककर |
− | पेड़ से कहा हो | + | पेड़ से कहा हो — "माफ़ करना, भाई, |
− | कुछ | + | कुछ हुक़्म ही ऐसा है" |
और ठक् ठक् गिरने लगा उसी तरह | और ठक् ठक् गिरने लगा उसी तरह | ||
उधर फैलती जा रही थी हवा में | उधर फैलती जा रही थी हवा में | ||
− | युवा बरगद के कटने की एक कच्ची | + | युवा बरगद के कटने की एक कच्ची गन्ध |
और "नहीं...नहीं..." | और "नहीं...नहीं..." | ||
− | कहीं से विरोध में आती थी एक बुढ़िया की | + | कहीं से विरोध में आती थी एक बुढ़िया की आवाज़ |
और अगली ठक् के नीचे दब जाती थी | और अगली ठक् के नीचे दब जाती थी | ||
जाने कितनी चहचह | जाने कितनी चहचह | ||
पंक्ति 201: | पंक्ति 201: | ||
जाने कितनी देर तक | जाने कितनी देर तक | ||
− | + | — कि अचानक | |
जड़ों के भीतर एक कड़क सी हुई | जड़ों के भीतर एक कड़क सी हुई | ||
− | और लोगों ने देखा कि | + | और लोगों ने देखा कि चीख़ न पुकार |
− | बस झूमता झामता एक शाहाना | + | बस, झूमता-झामता एक शाहाना अन्दाज़ में |
अरअराकर गिर पड़ा समूचा बरगद | अरअराकर गिर पड़ा समूचा बरगद | ||
− | सिर्फ 'घर' | + | सिर्फ 'घर' — वह शब्द |
देर तक उसी तरह | देर तक उसी तरह | ||
टँगा रहा हवा में | टँगा रहा हवा में | ||
पंक्ति 216: | पंक्ति 216: | ||
इस सच तक पहुँचने में | इस सच तक पहुँचने में | ||
कि उस तरह देखो | कि उस तरह देखो | ||
− | तो | + | तो हुक़्म कोई नहीं |
पर घर जहाँ भी है | पर घर जहाँ भी है | ||
− | उसी तरह टँगा है | + | उसी तरह टँगा है । |
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00:43, 24 जुलाई 2019 का अवतरण
उदय प्रकाश के लिए
पत्तों की तरह बोलते
तने की तरह चुप
एक ठिगने से चीनी भिक्खु थे वे
जिन्हें उस जनपद के लोग कहते थे
चीना बाबा
कब आए थे रामाभार स्तूप पर
यह कोई नहीं जानता था
पर जानना ज़रूरी भी नहीं था
उनके लिए तो, बस, इतना ही बहुत था
कि वहाँ स्तूप पर खड़ा है
चिड़ियों से जगर-मगर एक युवा बरगद
बरगद पर मचान है
और मचान पर रहते हैं वे
जाने कितने समय से
अगर भूलता नहीं तो यह पिछली सदी के
पाँचवें दशक का कोई एक दिन था
जब सड़क की ओर से भोंपू की आवाज़ आई
"भाइयो और बहनो,
प्रधानमन्त्री आ रहे हैं स्तूप को देखने..."
प्रधानमन्त्री !
खिल गए लोग
जैसे कुछ मिल गया हो सुबह-सुबह
पर कैसी विडम्बना
कि वे जो लोग थे
सिर्फ़ नेहरू को जानते थे
प्रधानमन्त्री को नहीं !
सो इस शब्द के अर्थ तक पहुँचने में
उन्हें काफ़ी दिक़्क़त हुई
फिर भी सुर्ती मलते और बोलते-बतियाते
पहुँच ही गए वे वहाँ तक
कहाँ तक ?
यह कहना मुश्किल है
कहते हैं — प्रधानमन्त्री आए
उन्होंने चारों ओर घूम कर देखा स्तूप को
फिर देखा बरगद को
जो खड़ा था स्तूप पर
पर, न जाने क्यों
वे हो गए उदास
(और कहते हैं — नेहरू अक्सर
उदास हो जाते थे)
फिर जाते जाते एक अधिकारी को
पास बुलाया
कहा — देखो, उस बरगद को गौर से देखो
उसके बोझ से टूटकर
गिर सकता है स्तूप
इसलिए हुक़्म है कि देशहित में
काट डालो बरगद
और बचा लो स्तूप को
यह राष्ट्र के भव्यतम मँच का आदेश था
जाने-अनजाने एक मचान के विरुद्ध
इस तरह उस दिन एक अद्भुत घटना घटी
भारत के इतिहास में
कि मँच और मचान
यानी एक ही शब्द के लम्बे इतिहास के
दोनों ओर-छोर
अचानक आ गए आमने सामने
अगले दिन
सूर्य के घण्टे की पहली चोट के साथ
स्तूप पर आ गए —
बढ़ई
मजूर
इंजीनियर
कारीगर
आ गए लोग दूर-दूर से
इधर अधिकारी परेशान
क्योंकि उन्हें पता था
ख़ाली नहीं है बरगद
कि उस पर एक मचान है
और मचान भी ख़ाली नहीं
क्योंकि उस पर रहता है एक आदमी
और ख़ाली नहीं आदमी भी
क्योंकि वह ज़िन्दा है
और बोल सकता है
क्या किया जाय ?
हुक़्म दिल्ली का
और समस्या जटिल
देर तक खड़े-खड़े सोचते रहे वे
कि सहसा किसी एक ने
हाथ उठा प्रार्थना की —
"चीना बाबा,
ओ ओ चीना बाबा !
नीचे उतर आओ
बरगद काटा जाएगा"
"काटा जाएगा ?
क्यों ? लेकिन क्यों ?"
जैसे पत्तों से फूट कर जड़ों की आवाज़ आई
"ऊपर का आदेश है — "
नीचे से उतर गया
"तो शुनो," — भिक्खु अपनी चीनी गमक वाली
हिन्दी में बोला,
'चाये काट डालो मुझी को
उतरूँगा नईं
ये मेरा घर है !"
भिक्खु की आवाज़ में
बरगद के पत्तों के दूध का बल था
अब अधिकारियों के सामने
एक विकट सवाल था — एकदम अभूतपूर्व
पेड़ है कि घर ...
यह एक ऐसा सवाल था
जिस पर कानून चुप था
इस पर तो कविताएँ भी चुप हैं
एक कविता प्रेमी अधिकारी ने
धीरे से टिप्पणी की
देर तक
दूर तक जब कुछ नहीं सूझा
तो अधिकारियों ने राज्य के उच्चतम
अधिकारी से सम्पर्क किया
और गहन छानबीन के बाद पाया गया —
मामला भिक्खु के चीवर-सा
बरगद की लम्बी बरोहों से उलझ गया है
हारकर पाछकर अन्ततः तय हुआ
दिल्ली से पूछा जाए
और कहते हैं —
दिल्ली को कुछ भी याद नहीं था
न हुक़्म
न बरगद
न दिन
न तारीख़
कुछ भी — कुछ भी याद ही नहीं था
पर जब परत-दर-परत
इधर से बताई गई स्थिति की गम्भीरता
और उधर लगा कि अब भिक्खु का घर
यानी वह युवा बरगद
कुल्हाड़े की धार से, बस, कुछ मिनट दूर है
तो ख़याल है कि दिल्ली ने जल्दी-जल्दी
दूत के जरिए बीजिंग से बात की
इस हल्की सी उम्मीद में कि शायद
कोई रास्ता निकल आए
एक कयास यह भी
कि बात शायद माओ की मेज तक गई
अब यह कितना सही है
कितना ग़लत
साक्ष्य नहीं कोई कि जाँच सकूँ इसे
पर मेरा मन कहता है — काश ! यह सच हो
कि उस दिन
विश्व में पहली बार दो राष्ट्रों ने
एक पेड़ के बारे में बातचीत की
— तो पाठकगण
यह रहा एक धुन्धला सा प्रिण्ट आउट
उन लोगों की स्मृति का
जिन्हें मैंने खो दिया था बरसों पहले
और छपते-छपते इतना और
कि हुक़्म की तामील तो होनी ही थी
सो जैसे-तैसे पुलिस के द्वारा
बरगद से नीचे उतारा गया भिक्खु को
और हाथ उठाए — मानो पूरे ब्रह्माण्ड में
चिल्लाता रहा वह —
"घर है...ये...ये....मेरा घर है'
पर जो भी हो
अब मौके पर मौजूद टँगे कुल्हाड़ों का
रास्ता साफ़ था
एक हल्का सा इशारा और ठक् ...ठक्
गिरने लगे वे बरगद की जड़ पर
पहली चोट के बाद ऐसा लगा
जैसे लोहे ने झुककर
पेड़ से कहा हो — "माफ़ करना, भाई,
कुछ हुक़्म ही ऐसा है"
और ठक् ठक् गिरने लगा उसी तरह
उधर फैलती जा रही थी हवा में
युवा बरगद के कटने की एक कच्ची गन्ध
और "नहीं...नहीं..."
कहीं से विरोध में आती थी एक बुढ़िया की आवाज़
और अगली ठक् के नीचे दब जाती थी
जाने कितनी चहचह
कितने पर
कितनी गाथाएँ
कितने जातक
दब जाते थे हर ठक् के नीचे
चलता रहा वह विकट संगीत
जाने कितनी देर तक
— कि अचानक
जड़ों के भीतर एक कड़क सी हुई
और लोगों ने देखा कि चीख़ न पुकार
बस, झूमता-झामता एक शाहाना अन्दाज़ में
अरअराकर गिर पड़ा समूचा बरगद
सिर्फ 'घर' — वह शब्द
देर तक उसी तरह
टँगा रहा हवा में
तब से कितना समय बीता
मैंने कितने शहर नापे
कितने घर बदले
और हैरान हूँ मुझे लग गया इतना समय
इस सच तक पहुँचने में
कि उस तरह देखो
तो हुक़्म कोई नहीं
पर घर जहाँ भी है
उसी तरह टँगा है ।