"निराला / नागार्जुन" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नागार्जुन |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 7: | पंक्ति 7: | ||
{{KKCatKavita}} | {{KKCatKavita}} | ||
<poem> | <poem> | ||
− | बाल झबरे, दृष्टि पैनी, | + | बाल झबरे, दृष्टि पैनी, फटी लुंगी नग्न तन |
− | फटी | + | किन्तु अन्तर्दीप्त था आकाश-सा उन्मुक्त मन |
− | किन्तु | + | उसे मरने दिया हमने, रह गया घुटकर पवन |
− | आकाश-सा उन्मुक्त मन | + | अब भले ही याद में करते रहें सौ-सौ हवन । |
− | + | ||
− | उसे मरने दिया हमने, | + | क्षीणबल गजराज अवहेलित रहा जग-भार बन |
− | रह गया घुटकर पवन | + | छाँह तक से सहमते थे शृंगालों के प्राण-मन |
− | अब भले ही याद में | + | नहीं अंगीकार था तप-तेज को नकली नमन |
− | करते | + | कर दिया है रोग ने क्या खूब भव-बाधा शमन ! |
+ | |||
+ | राख को दूषित करेंगे ढोंगियों के अश्रुकण | ||
+ | अस्थि-शेष-जुलूस का होगा उधर फिल्मीकरण | ||
+ | शादा के वक्ष पर खुर-से पड़े लक्ष्मी-चरण | ||
+ | शंखध्वनि में स्मारकों के द्रव्य का है अपहरण ! | ||
+ | |||
+ | रहे तन्द्रा में निमीलित इन्द्र के सौ-सौ नयन | ||
+ | करें शासन के महाप्रभु क्षीरसागर में शयन | ||
+ | राजनीतिक अकड़ में जड़ ही रहा संसद-भवन | ||
+ | नेहरू को क्या हुआ, मुख से न फूटा वचन ? | ||
+ | |||
+ | क्षेपकों की बाढ़ आई, रो रहे हैं रत्न कण | ||
+ | देह बाकी नहीं है तो प्राण में होंगे न व्रण ? | ||
+ | तिमिर में रवि खो गया, दिन लुप्त है, वेसुध गगन | ||
+ | भारती सिर पीटती है, लुट गया है प्राणधन ! | ||
</poem> | </poem> |
03:05, 24 जुलाई 2019 का अवतरण
बाल झबरे, दृष्टि पैनी, फटी लुंगी नग्न तन
किन्तु अन्तर्दीप्त था आकाश-सा उन्मुक्त मन
उसे मरने दिया हमने, रह गया घुटकर पवन
अब भले ही याद में करते रहें सौ-सौ हवन ।
क्षीणबल गजराज अवहेलित रहा जग-भार बन
छाँह तक से सहमते थे शृंगालों के प्राण-मन
नहीं अंगीकार था तप-तेज को नकली नमन
कर दिया है रोग ने क्या खूब भव-बाधा शमन !
राख को दूषित करेंगे ढोंगियों के अश्रुकण
अस्थि-शेष-जुलूस का होगा उधर फिल्मीकरण
शादा के वक्ष पर खुर-से पड़े लक्ष्मी-चरण
शंखध्वनि में स्मारकों के द्रव्य का है अपहरण !
रहे तन्द्रा में निमीलित इन्द्र के सौ-सौ नयन
करें शासन के महाप्रभु क्षीरसागर में शयन
राजनीतिक अकड़ में जड़ ही रहा संसद-भवन
नेहरू को क्या हुआ, मुख से न फूटा वचन ?
क्षेपकों की बाढ़ आई, रो रहे हैं रत्न कण
देह बाकी नहीं है तो प्राण में होंगे न व्रण ?
तिमिर में रवि खो गया, दिन लुप्त है, वेसुध गगन
भारती सिर पीटती है, लुट गया है प्राणधन !