भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
{{KKRachna
|रचनाकार=सुभाष राय
|संग्रह= सलीब पर सच / सुभाष राय
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
सागर मुझे अपने
सीने पर बिठाये बिठाए रखता है
अपनी लहरों के फन पर
उसने खुद ख़ुद ही उठा लिया था मुझे
तट पर अकेला पाकर
मैं ढूँढ़ रहा था शब्द
लहरों के लिए
जीवन के प्रति उसकी
मैं लौटना नहीं चाहता था
फिर अपने शहर में
लहरें बढ़ती तो छोड़ देता
फेंक देतीं वे मुझे
खुरदरी, नुकीली चट्टानों पर
मछलियाँ भी होतीं
मेरे साथ इस खेल में
बिल्कुल मेरे वहां वहाँ होने से अनजान
भीगी रेत पर फिसलती हुईं
बहते, लहराते हुए
सुबह उसके गर्भ से
निकलता ठंडा ठण्डा सूरज
और दिन भर जलकर
अपने ही ताप से व्याकुल
विशाल और असीम
मेरे भीतर होती लहरें
सीपियाँ, मछलियांमछलियाँ, मूंगेमूँगे
और वह सब कुछ
जो डूब गया इस
अप्रतिहत जलराशि में
समय के किसी अंतराल अन्तराल में
और तब सागर दहाड़ता
मेरी ही आवाज आवाज़ में
सुनामी आती मेरे भीतर
चक्रवात की तरह
तट से दूर तक की
की चाह से भरपूर
हवाओं की बाँह थामे
ज्वालामुखी का रक्ततप्त
लावा बहने लगता मेरी नसों में
खदबदाते खून ख़ून की तरह
धड़कने लगता मैं
समूचा हृदय बनकर
सुनता मुझे अपने भीतर
पूछता नहीं मुझसे
उसकी अपराजेयता से
सागर को आखिर आख़िर क्या
चाहिए सागर से
</poem>