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"मुल्क का चेहरा / सुभाष राय" के अवतरणों में अंतर

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मैं एक चेहरा बनाना चाहता हूं
+
मैं एक चेहरा बनाना चाहता हूँ
 
पर अधूरा रह जाता है बार-बार
 
पर अधूरा रह जाता है बार-बार
 
न जाने क्यों बनता ही नहीं
 
न जाने क्यों बनता ही नहीं
मेरे पास हर तरह के रंग हैं
+
मेरे पास हर तरह के रँग हैं
लाल, पीले, नीले, चटख
+
लाल, पीले, नीले, सफ़ेद और काले भी
सफेद और काले भी
+
मेरी तूलिका में भी कोई ख़राबी नहीं है
मेरी तूलिका में भी कोई खराबी नहीं है
+
इसी से मैंने अपनी तस्वीर बनाई है
इसी से मैंने अपनी तस्वीर बनायी है
+
बिल्कुल साफ़-सुथरी, मैं पूरा दिखता हूँ उसमें
बिल्कुल साफ-सुथरी
+
जो भी मुझे पहचानता है, तस्वीर भी पहचान सकता है
मैं पूरा दिखता हूं उसमें
+
उसकी आँखों में झाँककर पढ़ सकता है मेरा मन
जो भी मुझे पहचानता है
+
इसी तूलिका से मैंने कई और भी तस्वीरें बनाई हैं
तस्वीर भी पहचान सकता है
+
उसकी आँखों में झांककर
+
पढ़ सकता है मेरा मन
+
इसी तूलिका से मैंने कई
+
और भी तस्वीरें बनायी हैं
+
 
सब सही उतरी हैं कैनवस पर
 
सब सही उतरी हैं कैनवस पर
  
मैंने एक मजदूर की तस्वीर बनायी
+
मैंने एक मज़दूर की तस्वीर बनाई
उसके चेहरे पर अभाव और भूख
+
उसके चेहरे पर अभाव और भूख साफ़-साफ़ झलकती है
साफ-साफ झलकती है
+
उसे कोई भी देखे तो लगता है वह तस्वीर से बाहर निकल कर  
उसे कोई भी देखे तो लगता है
+
कुछ बोल पड़ेगा, बता देगा कि उसकी बीवी  
वह तस्वीर से बाहर निकल कर
+
कुछ बोल पड़ेगा
+
बता देगा कि उसकी बीवी
+
 
किस तरह बीमार हुई और चल बसी
 
किस तरह बीमार हुई और चल बसी
 
उसका बच्चा क्यों पढ़ नहीं सका
 
उसका बच्चा क्यों पढ़ नहीं सका
वह स्वयं तस्वीर की तरह
+
वह स्वयं तस्वीर की तरह जड़ होकर क्यों रह गया है
जड़ होकर क्यों रह गया है
+
  
मैंने एक सैनिक की तस्वीर बनायी
+
मैंने एक सैनिक की तस्वीर बनाई
 
वह अपनी पूरी लाचारी के साथ
 
वह अपनी पूरी लाचारी के साथ
मेरे रंगों से निकल कर
+
मेरे रँगों से निकलकर कैनवस पर आ गया
कैनवस पर आ गया
+
वह घने जँगल में सीमा के पास खड़ा था
वहां घना जंगल है
+
वहाँ आपस में गुत्थमगुत्था होते लोग हैं
वहां दो देशों की सीमाएं मिलती हैं
+
वहां आपस में गुत्थमगुत्था होते लोग हैं
+
 
एक-दूसरे को मार डालने पर आमादा
 
एक-दूसरे को मार डालने पर आमादा
सैनिक के पास बंदूक है
+
सैनिक के पास बन्दूक है, उसे लड़ने का हुक़्म भी है
उसे लड़ने का हुक्म भी है
+
पर वह तब तक गोलियां नहीं चला सकता
पर वह तब तक गोलियां
+
जब तक उसकी जान ख़तरे में न हो
नहीं चला सकता
+
जब तक उसकी जान खतरे में न हो
+
 
तस्वीर देखने पर लगता है
 
तस्वीर देखने पर लगता है
 
वह कभी भी पागल हो सकता है
 
वह कभी भी पागल हो सकता है
  
मैंने एक बच्चे की
+
मैंने एक बच्चे की तस्वीर बनाई
तस्वीर बनायी
+
वह मेरी तूलिका और रँग से खेलना चाहता था
वह हंस रहा था
+
वह मेरी तूलिका और
+
रंग से खेलना चाहता था
+
 
वह कैनवस पर आ ही नहीं रहा था
 
वह कैनवस पर आ ही नहीं रहा था
वह मुझे चकमा देकर
+
वह मुझे चकमा देकर निकल जाना चाहता था
निकल जाना चाहता था
+
कभी रँगीन गुब्बारा उठाता और
कभी रंगीन गुब्बारा उठाता और
+
 
उसे फोड़कर खिलखिला पड़ता
 
उसे फोड़कर खिलखिला पड़ता
कभी बैट उठा लेता और
+
कभी बैट उठा लेता और भागता मैदान की ओर
भाग जाना चाहता मैदान की ओर
+
कभी रोनी-सी सूरत बनाकर माँ को आवाज़ देता
कभी रोनी-सी सूरत बनाकर
+
भविष्य को ठेंगे पर रखे कभी चिल्लाता  
मां को आवाज देता
+
कभी सरपट दौड़ लगा देता
भविष्य को ठेंगे पर रखे
+
कभी चिल्लाता, कभी
+
सरपट दौड़ लगा देता
+
 
कभी मेरा चश्मा उतार लेता
 
कभी मेरा चश्मा उतार लेता
 
तो कभी मेरी पीठ सवार हो जाता
 
तो कभी मेरी पीठ सवार हो जाता
 
वह तस्वीर में है पर नहीं है
 
वह तस्वीर में है पर नहीं है
  
मैंने एक आधुनिक संत की तस्वीर बनायी
+
मैंने एक सन्त की तस्वीर बनायी
 
मैं नहीं जानता कैसे वह पूरा होते होते
 
मैं नहीं जानता कैसे वह पूरा होते होते
 
शैतान जैसी दिखने लगी
 
शैतान जैसी दिखने लगी
उसके चेहरे पर लालच, क्रूरता
+
उसके चेहरे पर लालच है, क्रूरता है
निर्ममता, धूर्तता सब कुछ
+
मैं उसे देख बुरी तरह डर गया हूँ
दिखायी पड़ रही है
+
लोगों को सावधान करना चाहता हूँ
मैं उसे देख बुरी तरह डर गया हूं
+
लोगों को सावधान करना चाहता हूं
+
 
पर कोई मेरी बात सुनता ही नहीं
 
पर कोई मेरी बात सुनता ही नहीं
 
लोग आते है, झुककर माथा नवाते है
 
लोग आते है, झुककर माथा नवाते है
कीर्तन करने लगते हैं,
+
कीर्तन करने लगते हैं, गाते-गाते होश खो बैठते हैं
गाते-गाते होश खो बैठते हैं
+
और चीखते, चिल्लाते सब हार कर इस तरह लौटते हैं
और चीखते, चिल्लाते
+
कि लौटते ही नहीं कभी  
सब हार कर इस तरह लौटते हैं
+
कि तौटते ही नहीं कभी  
+
  
 
मेरी तूलिका ने हमेशा मेरा साथ दिया
 
मेरी तूलिका ने हमेशा मेरा साथ दिया
मेरे रंग कभी झूठे नहीं निकले
+
मेरे रँग कभी झूठे नहीं निकले
पर मैं हैरान हूं, इस बार
+
पर मैं हैरान हूँ, इस बार
सिर्फ एक चेहरे की बात है
+
सिर्फ़ एक चेहरे की बात है
मैं बनाना चाहता हूं
+
मैं बनाना चाहता हूँ एक ऐसा चेहरा
एक ऐसा चेहरा
+
जिसे मैं मुल्क कह सकूँ
जिसे मैं मुल्क कह सकूं
+
जिसमें सभी ख़ुद को निहार सकें
जिसमें सभी खुद को निहार सकें
+
 
पर बनता ही नहीं
 
पर बनता ही नहीं
 
कभी कैनवस छोटा पड़ जाता है
 
कभी कैनवस छोटा पड़ जाता है
 
कभी पूरा काला हो जाता है
 
कभी पूरा काला हो जाता है
मुझे शक है कि मुल्क का चेहरा
+
मुझे शक है कि मुल्क का चेहरा है भी या नहीं
है भी या नहीं
+
 
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15:02, 26 जुलाई 2019 के समय का अवतरण

मैं एक चेहरा बनाना चाहता हूँ
पर अधूरा रह जाता है बार-बार
न जाने क्यों बनता ही नहीं
मेरे पास हर तरह के रँग हैं
लाल, पीले, नीले, सफ़ेद और काले भी
मेरी तूलिका में भी कोई ख़राबी नहीं है
इसी से मैंने अपनी तस्वीर बनाई है
बिल्कुल साफ़-सुथरी, मैं पूरा दिखता हूँ उसमें
जो भी मुझे पहचानता है, तस्वीर भी पहचान सकता है
उसकी आँखों में झाँककर पढ़ सकता है मेरा मन
इसी तूलिका से मैंने कई और भी तस्वीरें बनाई हैं
सब सही उतरी हैं कैनवस पर

मैंने एक मज़दूर की तस्वीर बनाई
उसके चेहरे पर अभाव और भूख साफ़-साफ़ झलकती है
उसे कोई भी देखे तो लगता है वह तस्वीर से बाहर निकल कर
कुछ बोल पड़ेगा, बता देगा कि उसकी बीवी
किस तरह बीमार हुई और चल बसी
उसका बच्चा क्यों पढ़ नहीं सका
वह स्वयं तस्वीर की तरह जड़ होकर क्यों रह गया है

मैंने एक सैनिक की तस्वीर बनाई
वह अपनी पूरी लाचारी के साथ
मेरे रँगों से निकलकर कैनवस पर आ गया
वह घने जँगल में सीमा के पास खड़ा था
वहाँ आपस में गुत्थमगुत्था होते लोग हैं
एक-दूसरे को मार डालने पर आमादा
सैनिक के पास बन्दूक है, उसे लड़ने का हुक़्म भी है
पर वह तब तक गोलियां नहीं चला सकता
जब तक उसकी जान ख़तरे में न हो
तस्वीर देखने पर लगता है
वह कभी भी पागल हो सकता है

मैंने एक बच्चे की तस्वीर बनाई
वह मेरी तूलिका और रँग से खेलना चाहता था
वह कैनवस पर आ ही नहीं रहा था
वह मुझे चकमा देकर निकल जाना चाहता था
कभी रँगीन गुब्बारा उठाता और
उसे फोड़कर खिलखिला पड़ता
कभी बैट उठा लेता और भागता मैदान की ओर
कभी रोनी-सी सूरत बनाकर माँ को आवाज़ देता
भविष्य को ठेंगे पर रखे कभी चिल्लाता
कभी सरपट दौड़ लगा देता
कभी मेरा चश्मा उतार लेता
तो कभी मेरी पीठ सवार हो जाता
वह तस्वीर में है पर नहीं है

मैंने एक सन्त की तस्वीर बनायी
मैं नहीं जानता कैसे वह पूरा होते होते
शैतान जैसी दिखने लगी
उसके चेहरे पर लालच है, क्रूरता है
मैं उसे देख बुरी तरह डर गया हूँ
लोगों को सावधान करना चाहता हूँ
पर कोई मेरी बात सुनता ही नहीं
लोग आते है, झुककर माथा नवाते है
कीर्तन करने लगते हैं, गाते-गाते होश खो बैठते हैं
और चीखते, चिल्लाते सब हार कर इस तरह लौटते हैं
कि लौटते ही नहीं कभी

मेरी तूलिका ने हमेशा मेरा साथ दिया
मेरे रँग कभी झूठे नहीं निकले
पर मैं हैरान हूँ, इस बार
सिर्फ़ एक चेहरे की बात है
मैं बनाना चाहता हूँ एक ऐसा चेहरा
जिसे मैं मुल्क कह सकूँ
जिसमें सभी ख़ुद को निहार सकें
पर बनता ही नहीं
कभी कैनवस छोटा पड़ जाता है
कभी पूरा काला हो जाता है
मुझे शक है कि मुल्क का चेहरा है भी या नहीं