"इतिहास के अनुत्तरित प्रश्न / सुभाष राय" के अवतरणों में अंतर
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− | मैं जब भी वर्तमान से मुठभेड़ करना चाहता | + | मैं जब भी वर्तमान से मुठभेड़ करना चाहता हूँ |
− | बार-बार इतिहास अपने निर्मम | + | बार-बार इतिहास अपने निर्मम चेहरे के साथ |
− | के साथ आकर खड़ा हो जाता है मेरे सामने | + | तमाम अबूझे, अनुत्तरित सवालों के साथ |
− | + | आकर खड़ा हो जाता है मेरे सामने | |
− | + | हुक्मराँ कहते हैं भूल जाओ, आगे बढ़ो | |
− | मत उखाड़ो गड़े मुर्दे, | + | मत उखाड़ो गड़े मुर्दे, दफ़्न रहने दो उन्हें |
− | + | वे उखड़े तो नए खतरे उभरेंगे | |
− | + | दुर्गन्ध लोगों के दिमागों को गन्दा करेगी | |
− | + | पूर्वजों के जिस्म पर घाव देख | |
− | लोग अपना गुस्सा | + | लोग अपना गुस्सा रोक नहीं पाएँगे |
− | + | सड़कों पर निकल आएँगे कबन्ध | |
− | एक-दूसरे से उलझते | + | एक-दूसरे से उलझते, टकराते हुए |
− | वर्तमान पर | + | वर्तमान पर अट्टहास करते हुए |
वे डरते हैं कि इतिहास उनके काले चिट्ठे खोल देगा | वे डरते हैं कि इतिहास उनके काले चिट्ठे खोल देगा | ||
उनके चेहरे से नकाब नोंच कर फेंक देगा | उनके चेहरे से नकाब नोंच कर फेंक देगा | ||
− | + | यादें ताज़ा हो उठेंगी और लहूलुहान हो उठेंगे जिस्म | |
− | यादें | + | उन्हें इतिहास इसलिए पसन्द नहीं है |
− | उन्हें इतिहास इसलिए | + | क्योंकि उसके पन्नों में वे दिखते हैं |
− | उसके पन्नों में वे दिखते हैं हत्यारों के जुलूस को | + | हत्यारों के जुलूस को ललकारते हुए, उनका नेतृत्व करते हुए |
− | ललकारते हुए, उनका | + | गान्धी के लहू से लिखी इबारत को ख़ारिज करते हुए |
− | + | नयी स्थापनाएँ अनावृत करते हुए | |
− | + | ||
कि खादी का तलवार से भी रिश्ता हो सकता है | कि खादी का तलवार से भी रिश्ता हो सकता है | ||
− | कि अहिंसा को | + | कि अहिंसा को ख़ून से ख़ास परहेज नहीं |
− | कि राजनीति का मतलब है केवल छल | + | कि राजनीति का मतलब है केवल छल |
− | कि जनता | + | कि जनता है सिर्फ़ बेवकूफ़ों की भीड़ |
− | + | उन्हें इतिहास इसलिए भी नापसन्द है | |
− | + | क्योंकि वे तब ख़ामोश रहे | |
− | उन्हें इतिहास इसलिए भी | + | जब सरयू का निर्मल पानी थरथरा रहा था |
− | वे तब | + | लाखों लोगों के घातक तुमुलघोष से |
− | जब सरयू का निर्मल पानी थरथरा रहा था | + | इतिहास का चेहरा जर्द पड़ गया था देखकर |
− | + | ||
− | इतिहास का चेहरा जर्द पड़ गया था देखकर | + | |
कुल्हाड़ियों, फावड़ों, कुदालों से लैस हमलावरों को | कुल्हाड़ियों, फावड़ों, कुदालों से लैस हमलावरों को | ||
कानून और संविधान को पागलों के एक सरगना ने | कानून और संविधान को पागलों के एक सरगना ने | ||
− | जकड़ रखा था अपनी | + | जकड़ रखा था अपनी ताक़तवर भुजाओं में |
− | + | ग़ुलाम वर्दियों में कसमसाने का साहस नहीं था | |
− | वे अपनी | + | वे अपनी बन्दूकें कन्धे पर सम्भाले सुकून से |
− | + | तूफ़ान के गुज़र जाने की प्रतीक्षा कर रहे थे | |
− | + | ||
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− | वे | + | कई सदियाँ सिर पर उठाए एक इमारत काँप रही थी |
− | एक निहायत कमीनी, | + | आसपास के छायादार पेड़ अपनी जड़ों से |
− | + | ख़ुद को बान्धे हुए मज़बूर और बेजान हो गए थे | |
+ | यकायक भीड़ के पैरों तले रौन्दे जाने के भय से | ||
+ | एक पल में शताब्दियों की स्मृति धूल के गूबार में बदल गई | ||
+ | हिन्दुस्तान के सीने, गले और पाँव से | ||
+ | ज़िन्दा शहरों के जिस्म से ख़ून टपकने लगा | ||
+ | जब वे कानून की भाषा बोलते सड़क पर आए | ||
+ | वक़्त उनके भविष्य पर पँजे गड़ाता हुआ जा चुका था | ||
+ | |||
+ | उनकी चुप्पी में भी एक आवाज़ थी | ||
+ | एक निहायत कमीनी, चालाक आवाज़ | ||
इतिहास के पन्ने पलटे तो यह सच बार-बार | इतिहास के पन्ने पलटे तो यह सच बार-बार | ||
− | लोगों | + | लोगों में पुराने दर्द की तरह उभरेगा |
− | + | ||
− | उन्हें इतिहास से इसलिए भी एलर्जी है क्योंकि | + | उन्हें इतिहास से इसलिए भी एलर्जी है क्योंकि |
− | जब ट्रेन के | + | जब ट्रेन के सिर्फ़ एक डिब्बे की लपट में |
− | + | गान्धी का समूचा गृहराज्य जल उठा था | |
− | तब भी | + | तब भी मुकुट उन्हीं के सर पर था |
− | पर | + | धुएँ से काला पड़ गया था सारा आसमान |
− | + | अन्धी हत्याओं की गन्ध से बोझिल थीं हवाएँ | |
− | + | पीड़ा से दहकती अहिंसा की धरती | |
− | + | सम्भाल नहीं पा रही थी अपने सीने में | |
− | + | सैकड़ों बेक़सूर परिवारों के मरे हुए सपने | |
− | सैकड़ों | + | |
− | + | त्रिशूलों के मृत्युनाद में दबी कातर चीख़ें | |
− | + | पहुँची तो ज़रूर होंगी उनके कानों तक | |
− | + | फिर भी चुप रह जाने का अपराध | |
− | त्रिशूलों के | + | याद दिलाता हैं रक्तरँजित इतिहास |
− | + | ||
− | फिर भी चुप रह जाने का | + | |
− | याद | + | |
− | + | ||
इतिहास पर किसी का वश नहीं चलता | इतिहास पर किसी का वश नहीं चलता | ||
− | वह कभी झूठ | + | वह कभी झूठ नहीं बोलता |
− | इसीलिए वे डरते हैं इतिहास से | + | इसीलिए वे डरते हैं इतिहास से |
− | वर्तमान को सहेजने की कोशिश में | + | वर्तमान को सहेजने की कोशिश में |
विनम्र, निश्छल दिखने का अभ्यास करते हैं | विनम्र, निश्छल दिखने का अभ्यास करते हैं | ||
पर शायद वे ठीक से जानते नहीं कि | पर शायद वे ठीक से जानते नहीं कि | ||
इतिहास के बिना वर्तमान टिकता नहीं | इतिहास के बिना वर्तमान टिकता नहीं | ||
− | + | जब भी वर्तमान की चर्चा होगी | |
− | + | उन्हें इतिहास का सामना करना ही पड़ेगा | |
− | उन्हें इतिहास का सामना करना ही पड़ेगा | + | |
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15:11, 26 जुलाई 2019 के समय का अवतरण
मैं जब भी वर्तमान से मुठभेड़ करना चाहता हूँ
बार-बार इतिहास अपने निर्मम चेहरे के साथ
तमाम अबूझे, अनुत्तरित सवालों के साथ
आकर खड़ा हो जाता है मेरे सामने
हुक्मराँ कहते हैं भूल जाओ, आगे बढ़ो
मत उखाड़ो गड़े मुर्दे, दफ़्न रहने दो उन्हें
वे उखड़े तो नए खतरे उभरेंगे
दुर्गन्ध लोगों के दिमागों को गन्दा करेगी
पूर्वजों के जिस्म पर घाव देख
लोग अपना गुस्सा रोक नहीं पाएँगे
सड़कों पर निकल आएँगे कबन्ध
एक-दूसरे से उलझते, टकराते हुए
वर्तमान पर अट्टहास करते हुए
वे डरते हैं कि इतिहास उनके काले चिट्ठे खोल देगा
उनके चेहरे से नकाब नोंच कर फेंक देगा
यादें ताज़ा हो उठेंगी और लहूलुहान हो उठेंगे जिस्म
उन्हें इतिहास इसलिए पसन्द नहीं है
क्योंकि उसके पन्नों में वे दिखते हैं
हत्यारों के जुलूस को ललकारते हुए, उनका नेतृत्व करते हुए
गान्धी के लहू से लिखी इबारत को ख़ारिज करते हुए
नयी स्थापनाएँ अनावृत करते हुए
कि खादी का तलवार से भी रिश्ता हो सकता है
कि अहिंसा को ख़ून से ख़ास परहेज नहीं
कि राजनीति का मतलब है केवल छल
कि जनता है सिर्फ़ बेवकूफ़ों की भीड़
उन्हें इतिहास इसलिए भी नापसन्द है
क्योंकि वे तब ख़ामोश रहे
जब सरयू का निर्मल पानी थरथरा रहा था
लाखों लोगों के घातक तुमुलघोष से
इतिहास का चेहरा जर्द पड़ गया था देखकर
कुल्हाड़ियों, फावड़ों, कुदालों से लैस हमलावरों को
कानून और संविधान को पागलों के एक सरगना ने
जकड़ रखा था अपनी ताक़तवर भुजाओं में
ग़ुलाम वर्दियों में कसमसाने का साहस नहीं था
वे अपनी बन्दूकें कन्धे पर सम्भाले सुकून से
तूफ़ान के गुज़र जाने की प्रतीक्षा कर रहे थे
कई सदियाँ सिर पर उठाए एक इमारत काँप रही थी
आसपास के छायादार पेड़ अपनी जड़ों से
ख़ुद को बान्धे हुए मज़बूर और बेजान हो गए थे
यकायक भीड़ के पैरों तले रौन्दे जाने के भय से
एक पल में शताब्दियों की स्मृति धूल के गूबार में बदल गई
हिन्दुस्तान के सीने, गले और पाँव से
ज़िन्दा शहरों के जिस्म से ख़ून टपकने लगा
जब वे कानून की भाषा बोलते सड़क पर आए
वक़्त उनके भविष्य पर पँजे गड़ाता हुआ जा चुका था
उनकी चुप्पी में भी एक आवाज़ थी
एक निहायत कमीनी, चालाक आवाज़
इतिहास के पन्ने पलटे तो यह सच बार-बार
लोगों में पुराने दर्द की तरह उभरेगा
उन्हें इतिहास से इसलिए भी एलर्जी है क्योंकि
जब ट्रेन के सिर्फ़ एक डिब्बे की लपट में
गान्धी का समूचा गृहराज्य जल उठा था
तब भी मुकुट उन्हीं के सर पर था
धुएँ से काला पड़ गया था सारा आसमान
अन्धी हत्याओं की गन्ध से बोझिल थीं हवाएँ
पीड़ा से दहकती अहिंसा की धरती
सम्भाल नहीं पा रही थी अपने सीने में
सैकड़ों बेक़सूर परिवारों के मरे हुए सपने
त्रिशूलों के मृत्युनाद में दबी कातर चीख़ें
पहुँची तो ज़रूर होंगी उनके कानों तक
फिर भी चुप रह जाने का अपराध
याद दिलाता हैं रक्तरँजित इतिहास
इतिहास पर किसी का वश नहीं चलता
वह कभी झूठ नहीं बोलता
इसीलिए वे डरते हैं इतिहास से
वर्तमान को सहेजने की कोशिश में
विनम्र, निश्छल दिखने का अभ्यास करते हैं
पर शायद वे ठीक से जानते नहीं कि
इतिहास के बिना वर्तमान टिकता नहीं
जब भी वर्तमान की चर्चा होगी
उन्हें इतिहास का सामना करना ही पड़ेगा