"दूर जाते हुए / कविता भट्ट" के अवतरणों में अंतर
('{KKRachna |रचनाकार=कविता भट्ट |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem>...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
|||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
− | {KKRachna | + | {{KKRachna |
|रचनाकार=कविता भट्ट | |रचनाकार=कविता भट्ट | ||
|अनुवादक= | |अनुवादक= | ||
पंक्ति 8: | पंक्ति 8: | ||
दूर जाते हुए मन सीपी सा | दूर जाते हुए मन सीपी सा | ||
यादों के समंदर में खोया था | यादों के समंदर में खोया था | ||
− | जिसके सीने को मैंने कई बार | + | '''जिसके सीने को मैंने कई बार''' |
− | अपने आंसुओं से भिगोया था | + | '''अपने आंसुओं से भिगोया था''' |
खोज रही थी आने वाले | खोज रही थी आने वाले | ||
पंक्ति 46: | पंक्ति 46: | ||
हमदर्दी का हस्ताक्षर करेगा? | हमदर्दी का हस्ताक्षर करेगा? | ||
− | मुझे गले लगाकर; क्या सच्ची बात | + | '''मुझे गले लगाकर; क्या सच्ची बात''' |
− | कहने का हुनर दोहराएगा? | + | '''कहने का हुनर दोहराएगा?''' |
− | जो सभ्यता में नहीं; क्या वह | + | '''जो सभ्यता में नहीं; क्या वह''' |
− | उस सम्बन्ध की धूल हटाएगा? | + | '''उस सम्बन्ध की धूल हटाएगा?''' |
जो मिलकर नम होती हैं बरस सकेंगी | जो मिलकर नम होती हैं बरस सकेंगी |
20:13, 3 अगस्त 2019 के समय का अवतरण
दूर जाते हुए मन सीपी सा
यादों के समंदर में खोया था
जिसके सीने को मैंने कई बार
अपने आंसुओं से भिगोया था
खोज रही थी आने वाले
हर चेहरे में उसका निश्छल चेहरा
भोली आँखें- जिनकी नमी
वो ज़माने से छिपाता ही रहा
बस इसलिए कि कहीं
मेरी आँखे फिर से बरसने न लगें
दोनों का दर्द एक सा है,
कहीं दुनिया समझने न लगे
झूठे-बनावटी संबंधो के
महलों की नींव न हिल जाये
तथाकथित सभ्यता-नैतिकता
कहीं धूल में न मिल जाये
रिश्तों के महल बस बाहर से ही
सुन्दर होते हैं दिखने में
उम्र गुजरी बेशकीमती संबंधों-
रिवाजों के सामान रखने में
इन सामानों की झाड़-पोंछ में
कितने ही निश्छल प्रेमी
खो देते हैं अपनी बात
कहने का हुनर, आँखों की नमी
बन जाते हैं मात्र मशीन-
संबंधों के लिए नोट छापने वाली
एक ही छत तले रहते रोबोट;
आकृति- मानव सी दिखने वाली
नम आँखों वाला वो सख्श
क्या फिर से लौटकर आयेगा?
मेरे कंधे पर अपनी हथेली से
हमदर्दी का हस्ताक्षर करेगा?
मुझे गले लगाकर; क्या सच्ची बात
कहने का हुनर दोहराएगा?
जो सभ्यता में नहीं; क्या वह
उस सम्बन्ध की धूल हटाएगा?
जो मिलकर नम होती हैं बरस सकेंगी
वो आँखें क्या दूर जाते हुए ?
या समेटे रखेंगी ज्वार-भाटा
सभ्यता-नैतिकता का घुटते-घुटाते हुए ?