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|रचनाकार=मानबहादुर सिंह
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यह घटना अगस्त 1997 की है । जब परमानंद जी कवि और आलोचक परमानन्द श्रीवास्तव को गोरखपुर से सुलतानपुर आना पड़ा था । सुलतानपुर जिले के रहने वाले हिंदी हिन्दी के महत्वपूर्ण कवि मानबहादुर सिेह की निर्मम हत्या दिन -दहाड़े एक सिरफिरे ने कर दी थी । मुझे अभी भी परमानंद परमानन्द जी के कहे वे शब्द याद हैं --‘‘ आश्चर्य की बात यह नहीं कि दिन दहाड़े किसी मनुष्य की हत्या हो जाती है । क्षोभ और चिंता चिन्ता की बात तो यह है कि कवि मानबहादुर सिंह को पूरे सारे विद्यार्थियों , शिक्षकों और अभिभावकों के बीच से एक अपराधी आफिस से बाहर घसीटता हुआ ले जाता है और कालेज के गेट के बगल ले जाकर उनको जिबह कर देता है । पूरी भीड़ भागती है और कोई उन्हें बचाने नहीं आता । इससे यह बात साबित होती है कि हमारे इस उत्तर आधुनिक दौर का मनुष्य कितना असामाजिक होता जा रहा है और समाज कितना अमानवीय । यह जो समाज की हस्तक्षेपहीनता है जिसके चलते उसके भीतर से प्रतिरोध का क्षरण हो रहा है , वह सम्पूर्ण भारतीय समाज के अधोपतन , अराजकता , अपराध , भ्रष्टाचार का मूल कारण हैं । शासन और प्रशासन पंगु बना तमाशबीन भर बचा नजर नज़र आ रहा है । ऐसे में हम साहित्यकारों की एक बार फिर बड़ी जिम्मेदारी ज़िम्मेदारी हैै कि इससे डटकर मुकाबला करें । जिससे समाज जागरूक हो और मानबहादंुर मानबहादुर सिंह का हत्यारा पकड़ा जाय । इसके लिए चाहे कुछ भी करना पड़ जाय । ‘‘ पड़े ।‘‘
मानबहादुर सिंह की रचनाधर्मिता पर आगे प्रकाश डालते हुए , परमानंद परमानन्द श्रीवास्तव जी ने कहा था ---‘‘ चूँकि मानबहादुर सिंह ग्रामीण जीवन बोध के अपने दौर में हिंदी हिन्दी पट्टी के सबसे बड़े कवि थे इसलिए प्रत्येक साहित्यकार उनका आदर और सम्मान करता है। ऐसा नहीं कि मानबहादुर सिंह सर्वश्रेष्ठ कवि थे । लेकिन जब ग्रामीण जीवन का परिवेश आयेगा आएगा तो मानबहादंुर मानबहादुर की कविता याद की जायेगी जाएगी । ग्रामीण जीवन की जो व्यंजना मानबहादुर की कविताओं में है , वह वास्तव में भोगा हुआ यथार्थ है । जो बदलता हुआ गँवर्इ्र गँवई जीवन है , उस तरह का गँवईजीवन गँवई जीवन किसी कवि के पास इसलिए नहीं है , क्योंकि बाकी बाक़ी कवि सहानुभूतिके सहानुभूति के आधार पर रचते थे और मानबहादुर सिंह स्वानुभूति के आधार पर । ‘‘।‘‘
मुझे काटो --मैं नए-नए कल्लों में फूटूँगा / मुझे जलाओ--सावन का हरा आतिश बन छूटॅूगा / मैं माटी का मन हूँ--मैं जन हूँ / मुझे अपने ऊपर छा लो / तुम्हें छाँह दूँगा / तुम्हारी थकी -हारी जिन्दगी ज़िन्दगी को / सुस्ताने की को बाँह दूँगा/ अपनी खटिया मुझसे बिन लो / मैं पेड़ नहीं कोई विशालकाय / कृशकाय अस्थियों का उपेंक्षित उपेक्षित झुरमुट हूँ / मेड़ पर खेत का रखवाला हूँ / कहीं माटी कटती हो , बहती हो / मुझे रोप दो / सहस्त्र-सहस्त्र अगुंलियों अँगुलियों से धरती की छाती कस लूँगा /बालू से भी जीवन रस लूँगा / मैं न चुकने वाला ऐसा विकास हूँ / जिसे चरे जाने का भय नहीं / मैं दरबदर झूमती मजबूर मज़बूर हरकत हूँ / मैं सरपत हूँ / मैं धरती का लहराता घन हूँ / मैं जन हूँ / माटी का मन हूँ--‘‘
जब देश के साहित्यकारों ने देखाकि हिन्दी का इतना बड़ा कवि इतनी बड़ी भीड़ में निर्ममता से हत दिया गया और शासन -प्रशासन अपनी भूमिका में नहीं आया । क्योंकि उनको एहसास नहीं था कि वह कितने बड़े व्यक्तित्व थे । उनके इस व्यक्तित्व को रेखांकित करने के लिए देश के बड़े -बड़े साहित्यकार अलग - अलग समयों पर आते रहे और उसका नतीजा यह हुआ कि प्रशासन जागरूक हुआ और मानबहादुर सिंह की जो अहमियत थी उसको समझा । परिणाम यह हुआ कि हिंदी हिन्दी ही नहीं , अन्य भाषाओं के अखबारों ने भी पहली बार किसी साहित्यकार की मृत्यु पर संपादकीय लिखा सम्पादकीय लिखे ।
बताते चलें । मानबहादुर सिंह यानी ‘सामंतशाही‘ के घर विद्रोही चेतना का जन्म ।
सुलतानपुर शहर से तकरीबन 40 किमी दूर बरूआरीपुर में जमींदार ठाकुर राजदेव सिंह के घर साल 1938 में विजयदशमी के दिन मानबहादुर सिंह का जन्म हुआ था । इण्टरमीडिएट तक की शिक्षा उन्होंने अपने गाँव के स्कूलों में पायी । बाद में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी0ए0 और अंग्रेजी में एम0ए0 करने के बाद वह अपने घर से 20 किमी दूर स्थित ‘ जनता इण्टरमीडिएट कालेज बेलहरी ‘ में अंग्रेजी के प्रवक्ता नियुक्त हो गये । लोग बताते हैं कि जब उनके पिता ने सुना कि वह जनता इण्टर कालेज बेलहरी में नौकरी करने लगे तो बहुत नाराज हुए और बोले -पहले तो तुम्हारी संगत खराब हुई । तुम ठाकुरों और जमींदारों के बजाय निम्न जातियों के बीच उठने- बैठने लगे । अब और हद कर दी । मैंने तुम्हारा नाम मानबहादुर सिंह क्या इसीलिए रखा था कि तुम मेरी नाक कटाओ । तुम्हारा बाप दूसरों को नौकरी देता है और अब तुम नौकरी करोगे । लोगों के बहुत समझाने- बुझाने पर वह सहमत हुए। लोगों ने यह भी बताया कि मानबहादुर सिंह कविताएँ लिखते हैं और आए दिन वह बड़े- बड़े अखबारों में छपते हैं । वह आप का नाम रोशन कर रहे हैं । लेकिन उन्हें अपनी रईसी से बढ़कर कुछ नहीं था । मानबहादुर सिंह अपने गाँव में रहते हुए अनवरत साहित्य -साधना करते रहे । अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में उनकी अनगिनत कविताएँ छपीं । साथ ही उनकी कविता की 5 महत्वपूर्ण पुस्तकें - प्रकाशित हुईं। बीड़ी बुझने के करीब1978करीब (1978), भूतग्रस्त (1985 ), लेखपाल तथ अन्य कविताएँ (1989 ), माँ जानती है (1993 और ) आदमी का दुख (2000 )। यह किताब मरणेापरान्त प्रकाशित हुईं।
मानबहादुर सिंह के दो पुत्र थे - अशोक विक्रम सिंह और आलोक विक्रम सिंह।