"अन्तस् की पीड़ा को गाकर / संदीप ‘सरस’" के अवतरणों में अंतर
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पीड़ा के अनुनादित स्वर को जन जन तक पहुँचाऊँगा। | पीड़ा के अनुनादित स्वर को जन जन तक पहुँचाऊँगा। |
23:04, 8 अगस्त 2019 का अवतरण
अन्तस् की पीड़ा को गाकर
शब्दशिल्प में उसे पगाकर
मैं जीवन की राम कहानी सदियों तक दोहराऊँगा।
अखिल विश्व में एक व्यक्ति भी सुनता है, मैं गाऊँगा।
गीतों की हर पंक्ति पंक्ति से अक्षर अक्षर अनुबंधित है।
शब्द शब्द से अनुप्राणित हो,भाव गीत से सम्बंधित है।
अंतर के आंदोलित भावों का अक्षरशः आमंत्रण है,
पीड़ाओं के गरल पान से ,मन शिवता को सम्बोधित है।
मानस में अनुभूति जगाकर
और उसे अभिव्यक्ति बनाकर
पीड़ा के अनुनादित स्वर को जन जन तक पहुँचाऊँगा।
अखिल विश्व में एक व्यक्ति भी सुनता है, मैं गाऊँगा।1।
रेती के तट पर रेतीले सपनों की आशा जीवित है।
जीवन हो जीवन्त हमेशा मन में अभिलाषा जीवित है।
उच्छंखल लहरों की आहट सुनकर ये आभास हुआ है,
इन उठती गिरती लहरों में गति की परिभाषा जीवित है।
मन के भावों को सहलाकर
शब्दों से उनको दुलारकर
अविरल बहती नदिया का मैं जीवन गान सुनाऊँगा।
अखिल विश्व में एक व्यक्ति भी सुनता है, मैं गाऊँगा।2।
मैं पत्थर में मूरत गढ़ने की प्रवृत्ति का अभिलाषी हूँ।
रेती को निचोड़ कर अपनी प्यास तृप्ति का अभ्यासी हूँ।
स्वाभिमान के बदले मुझको सुविधाएँ स्वीकार नहीं हैं,
अपना जीवन अपनी शर्तों पर जीने का विश्वासी हूँ।
मन मे फिर विश्वास जगाकर
जीवन को जीवंत बनाकर
सृजन साधना के फलतः मैं गीतों में ढल जाऊँगा।
अखिल विश्व में एक व्यक्ति भी सुनता है,मैं गाऊँगा।3।